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________________ २२६ कि अपनी उस परम एकाकी वेदना को मैं किसी के भी साथ बँटाने को तैयार न हो सकी । तुम्हारे बापू बहुत कातर, विव्हल हुए । फूट कर मेरी छाती पर लुढ़क पड़े । उन्हें ढाँपना तो दूर, उन्हें छूने तक को मेरी बाँह न उठ सकी। उन्हें आश्वासन देने का उपचार भी मुझे निरा मायाचार लगा । अन्तिम एकता के इस किनारे पर कौन किसी को आश्वासन दे सकता है ! 'ज्ञातृखण्ड उद्यान से लौटने के बाद की उस सन्ध्या के उपरान्त इन बारह वर्षों में फिर कभी तुम्हारे बापू केवल मुझी से मिलने मेरे पास न आये । उस रात भी मेरी चीख़ पर ही आये थे । और बाद में भी तुम्हारे उपसर्गों . के लोमहर्षी समाचार मिलने पर जब मैं बहुत हताहत हो कर आक्रन्द करती थी, तो विवश हो कर दौड़े आते और अनेक तरह से मुझे सहला-दुलरा कर ढारस बंधाते रहते । वर्ना तो इस नन्द्यावर्त में हम किसी विजन महासमुद्र के बीच दो अपने आप में बन्द रहसीले द्वीपों की तरह ही रहते हैं । अनिवार्य काम-काजी बातचीत जैसे हम दो यंत्रों की तरह कर लेते हैं। पर फिर भी कैसा अलौकिक है यह अहसास, कि जैसे तेरे बापू चुपचाप मेरी शिरा-शिरा में बहते रहते हैं, और जैसे मैं उनकी धमनियों में ज्वारों-सी उमड़ती रहती हूँ । निन्तात असम्पृक्त एकाकी हो कर भी, हम निरन्तर इस तरह साथ हैं, जैसे धरती पर छाया आकाश । और उस आकाश के किसी नीलमी टीले पर तुम एक निद्वंद्व शिशु की तरह मुक्त क्रीड़ा कर रहे हो । पर हाय, मेरा आँचल तरस कर रह जाता है, मेरे स्तन उमड़ कर झर पड़ते हैं, पर पर तुम्हें गोद नहीं लिया जा सकता । बस, विवश हूँ कि वह टीला हो रहूँ, जिस पर तुम खेल रहे हो । · वैशाली से ख़बरें आती रहती हैं, कि तुम्हारे जाने के बाद से विदेहों की यह वैभव-भूमि एक अधिक अधिक खोलती कढ़ाई हो कर रह गई है । आये दिन मगध और वैशाली के बीच छुटपुट युद्ध-विग्रह होते ही रहते हैं । कौन जाने, तुम्हें पता हो या नहीं, शील- चन्दना के स्वप्न की जिनेश्वरी देवनगरी चम्पाका मागधों के हाथों पतन हो गया । विष कन्या के सर्पदंश से श्रावक श्रेष्ठ महाराज दधिवाहन की हत्या करवा दी गई । तेरी मौसी पद्मावती शील-चन्दन को लेकर श्रावस्ती चली गयी । वहाँ से तुम्हारी खोज में वे राह-राह भटकती फिरीं। जिस भी ग्राम-नगर पहुँचतीं पता चलता कि तुम उसी प्रातः काल अन्यत्र विहार कर गये हो। तुम्हारा पीछा करके, कौन तुम्हें पा सकता है? हवा और आकाश को कोई कैसे पकड़ सकता है, जबकि हम ही उनकी पकड़ में जीवन धारण किये हैं । अपनी ही आती-जाती साँसों का पीछा कर, हम कहाँ पहुँच सकेंगे ? अपने ही में लौट कर विरम जाने को विवश हो जायेंगे । सुनती हूँ, चन्द्रभद्रा शीला को कोई ऐसा आन्तर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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