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________________ २२४ इस लिए नहीं आये, कि नन्द्यावर्त के सिंहपौर पर भिक्षार्थी हो कर आओगे, और पाणि-पात्र पसार दोगे, तो तुम्हारी माँ को वह सहन नहीं होगा। शायद यह भी सोचा हो, कि जिन माता-पिता और परिजनों का सर्वस्व ही छीन ले गये हो, उनसे और माँगने को कौन-सी भिक्षा शेष रह गयी है ? कारण जो भी रहा हो, मान, पर यह बात काँटे की तरह मेरे जी में खटकती है, कि सारी दुनिया को अपनाने के लिए क्या यह अनिवार्य था, कि हम तुम्हारे नितान्त पराये हो जायें ? सुनती रही हूँ, सहस्रों आत्माएँ तुम्हारी इस महायात्रा में तुम्हारा प्यार पा कर उत्तीर्ण हो गईं। असुरराज चमरेन्द्र के दुर्मद अहंकार को भी तुम्हारे चरणों में शरण प्राप्त हो सकी। पापियों, वेश्याओं और चाण्डालों तक को तुमने गले लगाया। चण्डकौशिक से अपने हृदय-देश तक को दंश करवाया। खोज-खोज कर अपने जनम-जनम के शत्रुओं की प्रतिहिंसा के हाथों तुमने अपने पोर-पोर को नुंचवा डाला। अगम्य जल-लोकों में उतर कर सुदृष्ट्र नागकुमार के उबलते वैर के प्रति आत्मार्पित हो गये। · · पर हमारी भूमि, नगर, आँगन और द्वार से तुमने इतना परहेज किया, कि फिर लौट कर उस ओर मुंह तक न फेरा। अपने जनक-जनेता की अनन्त प्रतीक्षावती आँखों के उत्तर में, एक झलक दिखाना या आँख उठा कर देखना भी तुम्हें गवारा न हो सका? सारे कारण बूझ कर भी, यह बात कारणातीत लगती है। क्यों कि इतना ममत्व तुम में कहाँ रह गया है, कि तुम जानबूझ कर हमसे बच कर निकलो। सोचती हूँ, चरम अवहेलना शायद उसी की की जाती है, जिसे प्यार करने की विवशता छोरहीन हो गई हो। सो तुम्हारी इस अवज्ञा में भी तुम्हारा अनन्त प्यार देखने को लाचार है, तुम्हारी माँ । पूछ सकते हो, कि 'तृशला, (माँ तो अब तुम मुझे कहोगे नहीं ! ), तुम्ही क्यों न मुझे खोज कर मेरे पास आने को विवश हुईं ?' . यह तो तुम से छुपा नहीं, मान, कि तुम्हारी माँ का जी कितना-कितना उचाट रहा है। कई आधी रातों में इस कदर बेचैन हुई हैं, कि इस महल से भाग छूटें, और बावली हो कर तुम्हारे पीछे दौड़ी फिरूं । .. और देखो न, मेरी चेतना क्या तुम्हारे विहार के दिगन्तों पर ही हर पल नहीं भटक रही है ? · . . .. पर बार-बार यही लगा है, कि तुम्हारे सामने पड़ कर, तुम्हारी मुक्तियात्रा की बाधा ही बनूंगी। वह उपसर्ग अन्य सारे उपसर्गों से अधिक क्रूर होगा तुम्हारे लिए । तुम्हारी माँ तुम्हारी ऐसी हत्यारी कैसे हो सकती थी ? और फिर तुम्हारी उस अवधूत काया, और जंगल-जंगल की धूल से सने और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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