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'.. 'मेरी छाती पर से हाथ हटा लो । मेरा जख्म तुम्हारे सहलावों और पुचकारों का कायल नहीं !'
_ 'तुम कुछ बुदबदाई थौं, चीखने के बाद : 'आह, यह कैसा शूल मेरी छाती के पार हो गया · · · !'--कहाँ है वह शूल, कौन सा शूल?–बोलो तृशा. मुझे दूर न ठेलो। अब अधिक जीने वाला नहीं हूँ...'
मैंने उनके बोलते ओठों को ऊँगलियों से दाब दिया ।
'नाथ, ऐसा न कहो । मन से तो बटे के महाभिनिष्क्रमण की रात ही तुम मुझे त्याग चुके थे। पर आँखों के सामने रहो मेरी । बहुत अकिंचन हो गयी हूँ
'तुम्हें त्याग कर कहाँ जाऊँगा ? पर तुम्हें ले सकने की मेरी सामर्थ्य ही उस साँझ समाप्त हो गयी । बहुत, बहुत बड़ी लगी तुम उस रात । - तुम्हारी सुबकती छाती पर रक्खा मेरा हाथ थरथरा रहा था। तुम्हारे उस रुदन को रोक न सका, खुद ही उसमें गल कर बह गया ।'
'नहीं, तुम्हें बहने नहीं दूंगी । पर मेरे रुदन का अन्त नहीं। लगता है, कि इस छाती में सारी सृष्टि का आर्त प्राण सिसक रहा है। पर पर. मेरे किनारे बन कर रहो । ताकि जगत कायम रह सके, ताकि अस्तित्व जारी रह सके। मैं पहले जगत को हूँ, अस्तित्व की हूँ, मोक्ष की नहीं। तुम्हारे बेटे का मोक्ष, मुझे समा नहीं सकेगा। समुद्र की सार्थकता इसी में है कि वह बादलों में घिरे, फिर बरस कर नदी बने। और जब पागल-विकल नदी दौड़ती हुई उसके आलिंगन में आ पड़े, तो वह धन्य हो जाये !'
'ओ मेरी नदी, तुम्हीं मुझे समुद्रत्व देती हो। फिर मेरे खारेपन को तुम्ही मधुर बनाती हो। तुम न आओ मेरी बाँहों में, तो मेरी उत्ताल तरंगों का क्या अर्थ? मेरी विराटता केवल तुम्हें समेट कर सार्थक हो सकती
एक गहरे आदिम मौन में, समुद्र नदी को बाँधने का विफल प्रयत्न करता रहा ।
रानी, बड़ा भयानक सपना देखा मैंने !' 'मेरा लालू तो सुरक्षित है न ? बोलो, जल्दी बोलो।'
'एक शूल मेरे दोनों कानों के आरपार भिद कर, मेरी रीढ़ को वेधता चला गया। मेरी मूत्र-नलिका में तीर की तरह सनसनाता हुआ, मेरे मूलाधार के पार हो गया।'
'.. और फिर मेरी छाती को आरपार वेध गया !'
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