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और यह शूल ? किसने इससे तुम्हें बींध कर, मेरा योनिवेध किया है ? · · ·ओह कैसे भयानक, क्रूर हो तुम ? अपने और मेरे हत्यारे के रूप में तुम्हीं खिलखिलाते हुए सामने आ खड़े हुए हो ! अब भी तुम्हारा बचपन गया नहीं, मान? वही खिलाड़ी रूप, वही लीला-खेल । सोचा था, अब तो तुम गहन गम्भीर हो गये होंगे। पर ..
'कौन ? वर्द्धमान ? तुम यहाँ कैसे ?' 'मैं सिद्धार्थ, त्रिशला ! • - यह तुम्हें क्या हो गया है ?' 'तुम क्यों आये ? किसने बुलाया तुम्हें ?'
'तुम्हारी चीख सुन कर आया, त्रिशा ? ऐसी चीख तो तुम्हारी कभी मुनी नहीं।'
__ 'मैं चीखू या मरूं, मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं।' 'शान्त, प्रियकारिणी, शान्त ।'
'तुम्हें मेरी चीख़ और पीड़ा अधिक प्रिय है। मैं नहीं । वर्द्धमान गया, उस दिन के बाद से, तुम्हें मेरी कोई चाह नहीं रही । फिर तुम केवल मेरी ख़ातिर मेरे पास कभी नहीं आये। मेरी सिसकियाँ सुन कर, मेरी पीड़ा और घाव को सहलाने ज़रूर आये। नहीं, मुझे तुम्हारे झूठे दिलासे नहीं चाहिये । मैं अपने लिए काफी हूँ ।' : 'जाओ वहीं, जहाँ तुम्हारा बेटा गया है !'
‘रानी-माँ, तुम्ही नहीं, तो और कौन समझेगा मुझे ? वर्द्धमान से वढ़ कर और कौन सा प्रेम हमारे बीच हो सकता है ?'
'प्राणाधिक हो कर भी, कोई बेटा, मेरी अपनी आत्मा से बड़ा नहीं हो सकता । क्या वर्द्धमान मेरे कहने से रुका ? मुझे रोती-कलपती छोड़ कर अपनी आत्मा की खोज में वह चला गया । मेरी भी अपनी आत्मा है, और वह हर किसी से स्वतंत्र है ।'
'वही तो महावीर है। तुम्हारी परम स्वतंत्रता। हर आत्मा की अपनी स्वाधीन सत्ता।'
'मुझे उपदेश नहीं सुनना। अपनी पीड़ा मुझे उससे अधिक प्रिय है।' 'प्राण, मेरी आत्मा ! • . .'
'मैं किसी की प्राण और आत्मा नहीं । केवल अपना प्राण, अपनी आत्मा हूँ।'
'इतनी निर्मम तो तुम कभी न हुई, प्रियकारिणी !'
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