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________________ २१८ · · ·पर छाती मेरी चिर गई है, गर्भ मेरा दरक गया है। और कोई चरम तीक्ष्णता मेरे पोर-पोर के पार हो गई है, इसे कैसे झुठलाऊँ ? मेरी अंतिम गोपनता छिन्न-भिन्न हो कर मेरे सामने नग्न आ पड़ी है। यह कैसा खुन का फ़व्वारा मेरे अतल में से फूट पड़ा है। ये कैसे आँसू मेरी गोदी में उफन रहे हैं। इतने अन्तिम और अनिवार हैं ये, कि इन्हें रोकना और सहलाना मेरे वश का नहीं । वर्द्धमान, यह ख न, ये आंसू तुम्हारे सिवाय और किसी के नहीं हो सकते । क्यों कि ये अन्तिम हैं, अन्तहीन हैं । ये निराधार और निरालम्ब हैं । अपने ही आप में सार्थक और समाप्त हैं। · · पर ये इतने मेरे अपने और अत्यन्त निजी लग रहे हैं, कि इन्हें तुम्हारे कह कर अपने से अलग कैसे करूँ ? इतनी विराट और चरम है यह रक्तधारा और अश्रुधारा, कि मानो हर काल और देश के हर जीव की आत्मा में से यह बही चली आ रही है। 'प्रियकारिणी त्रिशला, इसी क्षण के लिये तुम्हें यह नाम प्राप्त हुआ था। इसी क्षण के लिए तुम जन्मी और मां हुईं थीं, कि तुम्हारा गर्भ अन्तिम रूप से विदीर्ण हो कर एक दिन किसी अयोनिज सृष्टि का द्वार हो जाये ! . . . सो जाओ, प्रियकारिणी, तुम्हारे सिवाय कहीं और कुछ नहीं है। तुम्हीं ने अपने आप को, अपने आत्मज को क़त्ल किया है, आज की रात । • ऐसा हत्यारा महावीर के सिवाय और कौन हो सकता है ? वह, जो आप ही ही मारता है, आप ही मरता है। · ·और सब माया है, माँ · · · !' 'आत्· · ·मा !' __ माँ को पुकार कर भी, तुमने उसे परे ढकेल दिया, बेटा ? सोच में पड़ी थी कि यह दूसरी आवाज़ किसे पुकार रही है ! यह मेरे सिवाय दूसरी कौन माँ है-आत् : 'मा। तुम्हारी पीड़ा से बड़ी हो कर उठ रही थी, यह ईर्ष्या। · · ‘अब समझी, मुझे नकार कर तुमने अपनी ही आत्मा को पुकारा अन्तत : । · · ईर्ष्या का आधार पा कर, तेरी यह माँ अपने प्यार को व्यक्त करने का माध्यम पा गई थी। वह भी देकर तुमने छीन लिया। तुम्हारी निर्ममता का अन्त नहीं । तुम्हारी ममता का अन्त नहीं । तुमने अन्तिम रूप से मुझे अपने से अलग कर दिया । तुमने अन्तिम रूप से मुझे अपने में मिटा दिया । फिर भी एक दूसरे शरीर में जिये चले जाने को तुमने मुझे लाचार क्यों छोड़ा ? ___गोपन और ग्रंथि का मोचन होने पर कैसे जिया जाये ? जीवन का रहस्य ही नग्न निरावरण हो गया। इस नग्नता को कैसे सहूँ। मृत्यु में भी अन्त नहीं मेरे लिए ? उसे आलिंगन में लेकर जीना होगा ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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