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________________ २१३ फिर वह चुपचाप सन्तुष्ट भाव से खड़ा रह कर श्रमण की वेदना का आनन्द लेने को उद्यत हुआ । 'अरे, इसके तो कान पर जूं तक नहीं रेंगी। • आदमी है कि जानवर ? ऐसी पीड़ा से तो जानवर भी चीख उठे । पत्थर कहीं का । पत्थर से भी बदतर ।' ग्वाला मतिमूढ़, स्तब्ध हो रहा । कैसे इस दुष्ट को दण्डित करे । मार डालता तो तत्काल छुटकारा पा जाता यह दुष्ट । 'पर नहीं' चाहता हूँ, यह अन्तहीन पीड़ा भोगता रहे । तिल-तिल जल कर मरे। लेकिन जलन और मरण की कौन कहे, ऐसे दारुण शल्यवेध से भी, इसका एक रोंया तक नहीं काँपा ? आश्चर्य ! " - ग्वाले की समझ - बुद्धि गुम हो गयी । उसका क्रोध पराकाष्ठा पर पहुँच कर. आपोआप ख़ामोश हो गया । उसे अपनी स्थिति पर अचम्भा हुआ : 'अरे यह हो क्या गया है मुझे ? इस पत्थर से टकरा कर मैं भी पत्थर हो गया क्या ? ' गुमसुम निर्विचार चुपचाप वह अपने बैलों की खोज में जंगल की ओर चल पड़ा । पर उसके जी में यह कैसी खटक है ? चैने नहीं ·! आरपार बिधे इन शल्यों की पीड़ा सही नहीं जाती। कही नहीं जाती । देख रहा हूँ. तन की सहनशक्ति का अतिक्रमण कर वह अपार हो गयी है । जान पड़ता है. तन की सीमा को लाँघ कर वह जाने कहाँ विलय पा गयी है । तप्त सीसे और ताँबे के रस की अपेक्षा शायद वह कम पड़ गयी है । इसी से, लगता है. मेरे श्रवणों को वह पर्याप्त कष्ट न दे पाने के कारण व्यर्थ हो गयी है । भाई ग्वाले की आत्मा के अतल में बिधा बंर का वह शूल मैंने देख लिया था । सो अन्त तक चुप रहा, निरुत्तर रहा, इसीलिये कि उसके कषाय का वह काँटा आमूल उचट कर बाहर आ जाये, मनचाहा कष्ट मुझे देकर, उसका हृदय किसी तरह निष्कंटक हो जाये । चाहा कि वह शूल मेरे कानों के आरपार बिंध कर, उस बन्धु की आत्मा में से सदा को निर्गत हो जाये । पर, क्या उसे चैन पड़ा ? वह तो और भी बेचैन, परेशान, खोया-भटका दीख रहा है। बैल तो मिल गये उसे, जाने कब के । पर उसके जी में जो खटक है, उसे कैसे दूर करूँ ? - यह शल्यवेध जो अनुक्षण मेरे मस्तक के आरपार जारी है, शायद एक हद के बाद मेरे प्राण हर कर, उसकी पीड़ा हर ले ।' 'लेकिन प्राण दे देने की छुट्टी मुझे कहाँ है ? कोई किसी के प्राण ले नहीं सकता, अपने प्राण दे नहीं सकता । यह ख्याल मात्र ही मिथ्या - दर्शन है, भ्रान्त चिन्तन है । मारने और मरने के निमित्त मात्र बनते हैं हम । इस व्यापार को अपने 'मैं' से जोड़ कर, हम इस मिथ्या अहंकार से दुःख ही बटोर पाते हैं, निष्क्रान्त नहीं हो सकते । महासत्ता में मृत्यु का अस्तित्व ही नहीं । यह जीवन का स्वभाव नहीं, कि हम या और कोई उसका घात कर सके । पानी की धारा को अपनी तलवार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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