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से काटने का अहंकार हम भले ही कर लें । पर हक़ीक़त कुछ और ही है । अपने ही प्राण से पलायन कर हम जायेंगे कहां ? -
लेकिन इस शल्यवेध की वेदना से सम्पूर्ण गुजरे बिना तो निस्तार नहीं । इसे अन्त तक सह कर ही तो इसको जीता जा सकता है। इससे निष्क्रान्त हुआ जा सकता है | वेदना और मृत्यु को सम्पूर्ण संचेता से जी कर ही तो उसे जाना जा सकता है । उसे नकार कर नहीं, स्वीकार करके ही उसे जय किया जा सकता है । इसी तरह उसके मूल स्रोत तक पहुँच कर, उसके और उसके परे के सत्य को साक्षात् किया जा सकता है।
सो समर्पित भाव से इस पीड़ा को सहन कर रहा हूँ । इस वेदना की प्रत्येक कसक, ऐंठन, मरोड़ और मारकता को अपने अणु-अणु में काम करते एकाग्र भाव से देख रहा हूँ । यातना और मृत्यु का निश्चल भाव से निरन्तर साक्षात्कार ही इस घड़ी मेरे ध्यान का एक मात्र विषय रह गया है । पर जो ध्याता इसे ध्या रहा है, देख रहा है, इसका सामना कर रहा है, वह कौन है ?
'घर छोड़े आज बारह वर्ष हो गये । कभी घर के साये, सुरक्षा या माँ का ख्याल तक नहीं आया । पर महावेदना के इस चरम एकाकीपन में, हर कसक के साथ माँ का वह वत्सल मुखड़ा, आंखों में झूल जाता है। ओठों तक से फूट पड़ा है : 'माँ' माँ माँ माँ माँ, तुम कहाँ तुम कौन हो ? लेकिन तुम भी तो अपनी देह की स्वामिनी नहीं । तुम भी तो पीड़ा और मृत्यु के सम्मुख अवश हो ।'
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तब अपने आप को छोड़ कर और शरण कहाँ है: ? माँ है केवल वही ं ''आत्· 'मा! आत्मा जो निरन्तर अपने साथ अभी और यहाँ है।
· चरैवेति, चरैवेति, चरैवेति । यही तो एक मात्र स्व-भाव है मेरा । सो चलाचल रहा हूँ । वेदना अपनी जगह पर चल रही है, मैं अपनी जगह पर चल रहा हूँ ।
मध्य अपापा नगरी आया हूँ । सिद्धार्थ वणिक के द्वार पर आ कर भिक्षा के लिये अंजुलि पसार दी है। उसके हर्ष का पार नहीं । विपुल केशर, मेवा, द्राक्ष से मधुर और सुगन्धित पयस उसने मेरे करपात्र में ढाल दिया है। उसके घूंट कण्ठ से नीचे उतारने में जो कष्ट हो रहा है, वह पास ही खड़े श्रेष्ठि के परम मित्र खरक वैद्य ने लक्ष्य कर लिया । विचक्षण प्राणाचार्य ने अपने मित्र सिद्धार्थ के कान में कहा :
'मित्र, ये सर्वांग सुन्दर भगवन्त वेदना से व्याकुल और म्लान दीख रहे हैं । यह शल्य-पीड़ा का लक्षण है । शल्य से बिद्ध है सौन्दर्य की यह मूर्ति ।'
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