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________________ उज्जयिनी की महाकाली की गोद से उतर कर जो चला, तो गंगायमुना के संगम पर आ खड़ा हुआ हूँ । गन्धर्व नगरी कौशांबी की अभ्रंकष प्रासाद-मालाएँ । उनके नाना रंगी रत्नदीपों की प्रभा यमुना के जामली जल में झलमला रही हैं । 'वत्स देश की परम श्राविका महारानी मृगावती, तुम चौंक उठी हो ? नहीं, यह भिक्षुक तुम्हारे सिंहतोरण का अतिथि होने नहीं आया । - उदयन, तुम्हारी मातंग - विमोहिनी वीणा शून्य और स्वरहारा हुई पड़ी है । वासवदत्ता के सिन्धु-भैरवी रूप-यौवन और हृद-मातुल हस्तिवनों को पीछे छोड़, तुम किन पथरीले बियावानों में भटक रहे हो ? पर तुम्हारे द्वार-कक्षों और उद्यानों की शाल भंजिकाएँ अकुला कर चलायमान हो उठी हैं । कौशांबी के महालयों के स्वर्ण-शिखर नहीं, उनकी मानुष-भक्षी नीवों के ठंडे अंधियारों का आवाहन मेरे पैरों को यहाँ खींच लाया है । 'महारानी मृगावती, तुम्हारे रत्न प्रतिमाओं वाले जिन-मंदिरों के शिलीभूत देवता मुझे आकृष्ट न कर सके : तुम्हारे जीवन्त दासी - पण्यों की जंजीरें मेरी. रक्तवाहिनियों में झनझना उठी हैं ।" ... कहाँ है वह अश्रुमुखी राजबाला ' जाने कितने दिनों का उपासी है भिक्षुक । मायापुरी कौशांबी में कौन उसे आहारदान करेगा ? अरे यह किसने पुकारा : 'तुम कहाँ हो ?' 'मेरे नाथ 'मेरे भगवान · · अविज्ञात दूरी में देख रहा हूँ: एक महालय का तलघर । मुंडित शीश, धूलि -धूसरित, दीन- मलिन वसना कोई राजपुत्री बेड़ियों में पड़ी बन्दिनी । निष्कम्प दीपशिखा - सी प्राज्जवल्यमान सुन्दरी सती । ' • बेड़ीबद्ध एक पैर काल- कोठरी की देहरी के भीतर दूसरा पैर बाहर । दोनों हाथों पर उठे सूप में कुलमाष धान्य के दाने । माटी के कुल्हड़ में निर्मल जल । जाने कब की उपासी, भूखी-प्यासी । उसकी आँखों से बह रहे हैं अविरल आँसू । 'कौन हो तुम ? कहाँ हो तुम, ओ कल्याणी ? कामिनी और कांचन के सौ-सौ परकोट पड़े हैं हमारे बीच। रोते-बिलखते, मूक पशु की तरह जूआ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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