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कुल्हड़ में जल । · · 'मेरे सामने वह देहरी में रख कर वे भागे, बेड़ी काटने के लिये लोहार को बुलाने, बाज़ार से फलाहार लाने। मनसा मौसी भी किसी अन्य प्रबन्ध में व्यस्त हो गयी हैं कहीं।
पूर्वाह्न की धूप का एक टुकड़ा कोठरी की देहरी पर आ कर पड़ रहा है। - 'कितने दिनों बाद आज मेरे लिये सूरज उगा है ? मेरा सूरज · · !
यह अन्न-जल तत्काल ग्रहण न करूँगी, तो लौट कर बापू दुखी होंगे। · · 'तुम्हारे दिये इस अमृत का प्राशन करती हूँ, बापू । बस इतनी ही देर है कि द्वार पर कोई अतिथि आ जाये। अतिथि-देवता मेरे इस भोजन को प्रसाद कर दें। · · क्या दासियों की दासी चन्दना के द्वार का अभ्यागत हो सके, ऐसा कोई जन मनुष्य के इस लोक में होगा ?'
. : मेरे नाथ · · 'मेरे भगवान · · 'तुम कहाँ हो · · ?'
· · 'कहीं दूरी पर, कौशाम्बी के राजपथ से ये कैसी ध्वनियाँ सुनायीं पड़ रही हैं। ध्वनियाँ पास से पासतर चली आ रही हैं : ___महाश्रमण वर्द्धमान की जय हो। देवर्षि ज्ञातपुत्र की जय हो। . . . भगवान महावीर की जय हो · · ·!'
· · · 'ओह, तुम आ गये, मेरे अतिथि · · ·?''
किसी तरह सींखचे पकड़ कर खड़ी हो गयी। एक कदम से आगे तो बढ़ नहीं सकती। बेड़ी जो पड़ी है पैरों में । एक पैर कोठरी में, और एक पैर देहरी के पार धर कर ठिठकी रह गयी हूँ। सूप में ये तुच्छ कुलमाष के दाने भर हैं। और यह माटी का कुल्हड़ भर पानी । मलिना, मुंडिता, दीन-दुखियारी दासी का यह दान ग्रहण कर सकोगे ? · · 'महालयों की मींव के इस अदृश्य, अँधियारे कोने में, तुम झाँक सकोगे, ओ त्रिभुवन के राजाधिराज? : ..
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