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ढोते दासत्व की जाने कितनी पीढ़ियाँ राशिबद्ध हो कर पड़ी हैं हमारे बीच । आदिकाल की सन्तप्ते, चिर शोषित मानव - सन्तानों के दुःख- परितापों और घटे आँसुओं के धुंधवाते समुद्र पड़े हैं सामने । इन सब में से संक्रान्त होकर ही तो पहुँच सकूंगा, तेरे द्वार पर, ओ कारावासिनी आत्मा ! '
कौशांबी के द्वार-द्वार पर भिक्षुक, उस करुण-मुखी अश्रुलता को खोजेगा'
देख रहा हूँ, भिक्षुक हर दिन गोचरी पर निकल कर अनाहार ही लौट जाता है। कौशांबी के जिनोपासक श्रावकों में इससे भारी विक्षोभ छा गया है । भव्य महालयों के द्वारों पर द्वारापेक्षण करती सुन्दरियों के हाथों के रत्न-कलश और आवाहन मुँह ताकते रह जाते हैं। दिव्य अन्न पक्वान्नों की रसवती के थाल प्रति दिन पराजित, उपेक्षित, ठुकराये पड़े रह जाते हैं । भिक्षुक एकाक्षी अग्निबाण-सा सिंहावलोकन करता, नगर की सारी वीथियों, अन्तरायणों, चत्रपथों, राजपथों को बेरोक पार करता निकल जाता है । सर्वसाधारण प्रजा से लगा कर, श्रेष्ठि श्रावकों की हवेलियों और राजमहालयों तक में इससे भारी चिन्ता व्याप गयी है । खलभली मच गयी है ।
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· निष्फल भिक्षाटन के ये चार मास, चार युग की तरह बीते हैं । बड़ी दुःसाध्य परीक्षा ली है, मेरी उस कारावासिनी अन्नपूर्णा ने । शताब्दियों के दौरान, महाजनों के भंडार धन-धान्य से भरे होने पर भी, उन माँ की कोटि-कोटि सन्तानें जो भूखी नंगी रहती आयीं हैं, उसी का दण्ड शायद वे जगदम्बा मुझे दे रही हैं । उनका जो स्वरूप मेरे अभिग्रह में झलक रहा है, उसे देखकर सिद्धालयों के ज्योतिर्मय शिखरों की ओर से महावीर ने आँख फेर ली है। भीतर झाँकते, पुकारते मोक्ष मन्दिर के कपाट उसने झुंझला कर बन्द कर दिये हैं । • और वह कौशांबी की अंधी गलियों में सर्वहारा, मलिन- वदना, अश्रुमुखी माँ के उस संत्रस्त मुखड़े को खोजता फिर रहा है।'
सुगुप्त मंत्री के द्वार-पौर से एक दिन गुज़र रहा था । दूर से मुझे देख उसकी स्त्री नन्दा हर्षाकुल होकर बोल पड़ी :
'लो, महावीर अर्हन्त, सौभाग्य से मेरे द्वार पर ही आ रहे हैं !'
विविध व्यंजनी रसवती के सुवर्ण थालों से सज्जित दालान में नन्दा आवाहन करती रह गई । पर भिक्षुक उस ओर आँख उठाये बिना ही निकल गया। पीछे सुनायी पड़ा नन्दा के कातर कण्ठ का उदास स्वर :
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'हाय, कैसी हतभागिनी हूँ मैं। आज एक सौ बीसवीं बार मेरी रसवती प्रभु का कल्प न हो सकी। मेरा नैवेद्य हर बार प्रसाद होने से वंचित ही
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