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________________ ११ का लाल बिम्ब डूब गया। घिरते प्रदोष के कुहरिल अंधकार में, दूरियों में कहीं-कहीं दीखती बस्तियों के दीये डूब गये। . . एक समरस और सघन अंधकार। एक नीरन्ध्र और नीरव सन्नाटा । और उसमें झिल्लियों की झंकार । जो मानो इस अंधियारे का ही एकतान संगीत है। सांय-साँय, झाँय-झाँय करते झाड़ भूत-प्रेतों के सैन्य की तरह आसपास घिरते चले आ रहे हैं। पुंजीभूत तमस चारों ओर से मुझ पर आक्रमण करने को उद्यत है । और मैं कितना अकेला हूँ। कितना अशरण : कितना घात्य । किसी भी क्षण अन्धकार का यह सौ-सौ कराल जिह्वाओं और डाढ़ों वाला दानव मुझे लील सकता है । दिशातीत दूरी में एक दीया कहीं चमका। उसकी टिमटिमाहट को मैंने बहुत निकट से देखा। पता नहीं किस मां के कक्ष का यह दीया है। कंशोर्य और यौवन के इन सारे बरसों में मां से दूर ही रहा हूँ । वही मेरा स्वभाव हो चला था। पर आज यह क्या देख रहा हूँ : उन सारे बरसों को पार कर नन्द्यावतं के उस रत्न-दीपालोकित कक्ष में, माँ की गोद में दुबका वह बालक झांक उठा । कसी ऊष्मा है : कैसी मुरक्षा है की गोदी के इस गहराव में । . . एक फुरफुरी-सी शरीर में दौड़ गई। ६. रोमांचन के साथ कहीं दुबक जाने की सी एक विकलता चेतना में टीस उठी। . . 'नहीं, नहीं · · नहीं। यह माया है : यह छलावा है अपने ही साथ । जो गोद स्वयम अपनी ही नहीं, अपने ही को शरण नहीं दे सकती. उसमें मेरे लिये शरण कहाँ ? उसकी स्वामिनी स्वयम् कितनी अनाथ, शोकाकुल, विरहिणी होकर, अपनी वैभव-शया में परवश लेटी है। उसके वक्ष में किसी अन्य को शरण कैसे मिल सकती है। जो स्वयम् इतनी अनाथ और निराधार होकर लुंजपुंज, हताहत पड़ी है, वह मुझे सनाथ और अनाहत कैसे कर सकती है। · · · यह शरीर जो स्वयम् कपूर की तरह उड़ सकता है, बुलबुले की तरह विलीन हो सकता है, जिसमें अपने ही लिये आधार नहीं, सुरक्षा नहीं। तो कोई दूसरा शरीर, जो खुद ही भंगुर और घात्य है, मुझे अघात्य कैसे कर सकता है। जो स्वयम् अरक्षणीय है, उसमें रक्षा कहाँ ? जो स्वयम् भयभीत है, उसमें अभय कहाँ ? · . . • सारी ध्वनियाँ, आकृतियाँ और स्पर्श क्षण मात्र में ही लुप्त हो गये। • एक आव्याहत शन्य में जो अविचल स्थित रह गया है, यह कौन है ? यह एक शुद्ध स्वानुभूति है, जो अकथ्य है । एक असंज्ञ शरणागति में अस्मिता खो गयी। मैं कोई नहीं हूँ. · · मैं कुछ नहीं हूँ। और इसके अनन्तर जो यह बचा है, यह कौन है ? · · · मैं हूँ. · · मैं हूँ • • “मैं हूँ ।' . एक विश्रब्ध गहनता में यह आत्मानुभूति भी भावातीत हो गई। • • Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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