SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ · · · फिर जाने कब एक अति कोमल, स्निग्ध सरसराहट से शरीर की चेतना किंचित् लौट आई। पैरों को किसी मंडलाकार मृदुता ने चारों ओर से घेर. लिया। प्राणिक रक्त की अज्ञात ऊष्मा ने पूरे शरीर को आवृत्त-सा कर लिया। नीचे से उठ कर कोई कुण्डलिनी एक-एक अंग को वलयित करती हुई, मेरु-दण्ड में लहराती हुई, मस्तक पर छत्र-सी छा गई । झगर-झगर करती अग्निम मणियों से भास्वर एक फणामण्डल ! क्षणार्ध को भय का एक कम्प रक्त में दौड़ गया। · ·और अन्तर-मुहूर्त मात्र में, अपने ही भीतर के किसी फणीन्द्र के मस्तक पर, अपने को अकम्प, अधर में आसीन अनुभव किया । तत्काल देह आत्मान्तरित हो गई। बस एक शून्य है, मैं से अतीत । अननुभूत । कौन किसे देखे, गहे, अनुभवे ? सवेरे की कोमल धूप जब शरीर को नहलाने लगी, तो एकाएक देह की इयत्ता में लौट आया। दिगन्तों तक व्याप्त प्रकृति और सृष्टि के शीर्ष पर यह कौन खड़ा है ? . . . पर्वत के ढाल पर अपने को उतरते पाया। किस दुर्गम, दुरारोह उत्तानता में चढ़ आया था, उसका किंचित् भान हुआ। ज़रा ही पैर चूका, कि लुढ़कते हुये नीचे फैली अतल खंदक की कराल दाढ़ में सीधे जा गिरना होगा। • • लेकिन पैर जैसे सुगम भाव से सीढ़ियां उतर रहे हों । हर कदम पर खंदक चौड़ी से चौड़ी, गहरी से गहरी हो सामने आती है। और मैं उसमें अविकल पैर धरता, एक समतल अधर पर चलाचल रहा हूँ। पग-पग पर सरिसृपों से सरसराती ढेर-ढेर पतझार में ऐसे चल रहा हूँ, जैसे पैर उस पर नहीं, अपनी ही काया पर धरता चल रहा हूँ। जड़-चेतन का कण-कण इतना वल्लभ लग रहा है, कि मेरे पदाघात से एक सूक्ष्मतम जीवाणु भी दुख न जाये, ऐसी सावधानी मेरे रोम-रोम में अनायास व्याप्त है। हवा के झोंकों में रह-रह कर वक्षों की पत्तियाँ झर रही हैं। पत्रहीन अरण्यानी के इन ढूंठों को बहुत निकट से देखा। और अपने ही इस सुन्दर शरीर के भीतर छुपे, भयावने हाड़-पिंजर को साक्षात् किया। शीत-पाले, कंकड़-कांटों से क्षतविक्षत अपने मलिन शरीर की त्वचा को तड़कते, उघड़ते देखा। सामने के पेड़ों की छालें सूख कर पपड़िया गई हैं। जहां-तहां से उखड़ कर उनकी पपड़ियां गिर रही हैं। उस शुष्कता को भेद कर, उनके भीतर की कोई कच्ची हरी त्वचा की पर्त कहीं-कहीं झांक रही है । और अपने शरीर की छिलानों में से भी एक और कोई भीतर का ताज़ा, कच्चा शरीर उघड़ आता दीखा। सूक्ष्म हो आई निगाह पेड़ों की डालों पर कहीं-कहीं फूट आते बहुत बारीक अँखुवों से स्कराई. - ‘जीवन · · 'जीवन · · ‘जीवन : अनाहत. और अविनाशी जीवन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy