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________________ १९९ अत्यन्त मोटा खुर्दरा वसन मुझे पहना दिया गया। आँखों पर पट्टी बाँध कर स्वामिनी के आदेश पर, हवेली के तहख़ाने की एक अंधी कोठरी में मुझे ढकेल दिया गया। तब आँखों की पट्टी उतार दी गयी, और मेरे पैरों में लोहे की बेड़ियाँ डाल दी गयीं। मंडित केशी, बन्दिनी दासी चन्दना के इस स्वरूप को देख कर मुझे एक विचित्र मुक्ति अनुभव हुई । · · ‘समस्त आर्यावर्त की हज़ारों दीन-दलिता अपनी दासी-बहनों के शतियों व्यापी आमरण कष्ट-निर्दलन के एकीभूत प्रतिशोध की पात्र आज मैं यथेष्ट रूप में हो गयी . . 'ओ परम सत्य, ओ परम न्याय, तुम कहीं हो अस्तित्व में तो देखना, यह प्रतिशोध मेरा तिल-तिल दहन कर, अचूक सम्पन्न हो । दासियों की दासी चन्दना का यह यज्ञ अमोघ हो, कोई कसर न रह जाये। . . ' 'निर्जल, निराहार, उन्निद्र दिन-रात बीतने लगे। डाँस-मच्छर, कीड़ेमकोड़े, बर्र-ततैये तथा विचित्र सरिसृपों की इस तमसाच्छन्न सृष्टि में पाया, कि मेरा एकाकी जीव जाने कितने भव-भव के बिछुड़े जीवों का संग-साथ सहसा ही पा गया है । जीवों के परस्पर उपग्रह की निर्बाध और नग्न अनुभूति सतत भीतर संचरित रहने लगी। भूखा-प्यासा तन-बदन निढाल समर्पित, अवश भाव से धुल भरे फर्श की शिलाओं पर पड़ा है। और उस अक्रिय निश्चेष्टता में, नाना जीव-जन्तुओं के तरह-तरह के दंश, चुभन, पीड़न, सरसराहटों को अवारित भाव से सहना ही मेरा एकमात्र सुख हो गया है। देह के अणु-अणु में अपने को निःशेष दे देने की, चुका देने की ऐसी विकल वेदना उमड़ती रहती है, कि कहने में नहीं आती। किसी चुम्बन, आलिंगन, अथवा शिशु के ओठों में उमड़ते माँ के स्तन की आनन्द-वेदना क्या ऐसी ही नहीं होती होगी? . . . एक तन्द्राच्छन्न झिल्ली-रव में स्तब्ध मेरी चेतना में, विगत जीवन की सारी चित्रमाला, छाया-खेला की तरह खुलती रहती है। · · 'उस दिन तुमने कहा था, मान : 'तुम कितनी सुन्दर हो, मौसी ! · · ऐसा सौन्दर्य यदि कहीं भी है, तो मेरे लिये विवाह अनावश्यक है !' . . और उसके बाद कहने में तुमने कुछ भी तो शेष नहीं रहने दिया था। निःशब्द, निर्विचार हो गयी थी सुन कर । केवल इतना ही बोध शेष रह गया था : मेरा नियति-पुरुष बोला है ! अचूक और अविकल्प है यह वाणी। - 'मेरा कर्तृत्व समाप्त हो गया है। जाने कैसे समझ गयी थी, कि इस सौन्दर्य को पार्थिव में सहेजा और सहा नहीं जा सकता। माटी के तन में यह ज्वाला सिमटी नहीं रह सकती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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