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उसे जला कर भस्म कर देगी, या उसे भी आग में रूपान्तरित करके ही चैन लेगी। • 'खतरनाक हो तुम, ओ अनहोने युवान् ! निरन्तर ख़तरे में जीने वाले तुम, मुझे अपने पीछे सुरक्षित जगत में जीने को कैसे छोड़ जा सकते थे ! __.. 'मेरा क्या वश था। अपने बावजूद तुम्हारी सहचारिणी, अनुगामिनी हो कर रह गयी। हिंस्र वासना के खूखार जंगलों और अन्धी खंदकों में अपने को विचरते देखा। जिस सौन्दर्य पर तुमने अपनी मुद्रा आँक दी थी, उसे अपनी ही आग में तप कर, अपनी अस्मिता सिद्ध करनी ही थी। अन्तिम अन्धकार के लोक में प्रवेश कर के ही जान सकी थी, कि एकमात्र इसी सौन्दर्य की रोशनी के सहारे तो मृत्यु में भी चला जा सकता है !
· · हिंस्र जन्तुओं से भरे इस अंधियारे तलघर की तमसाकार दीवारें उस रूप का आइना बन गयी हैं। बेड़ियों में बँधी पड़ी मुंडिता दासी ने अपनी वासुकी अलकों के सामुद्रिक वैभव को आज पहली बार पहचाना। तुम्हारे शब्द मिथ्या कैसे हो सकते थे, ओ काल-पुरुष! दासी भिक्षुणी हो कर मेरे सामने खड़ी है। इसे भिक्षा देने योग्य मेरे पास अब क्या बचा है ? सर्वस्व छीन कर भी तुम्हें चैन नहीं ? अब भी यदि मुझ में कुछ अवशिष्ट बचा हो, तो ले लो। प्रस्तुत हूँ। निर्जन, निराहार, शिथिल हो रहे इस गात के तट पर यह कौन गरुड़ पंख मार रहा है ? कौन आया है इस वैनतेय पर चढ़ कर? • • •
- शैशव से इस क्षण तक की चन्दना एक समग्र जीवन्त चित्रपट की तरह सामने खुलती रहती है। खण्ड-खण्ड स्मृतियाँ अब मुझे नहीं सता पातीं। कभी कहीं और थी, और तरह थी, और अब यहाँ इस अवस्था में हूँ, ऐसी कोई टीस भी नहीं सताती। जो वहाँ थी, वही तो यहाँ भी हूँ। मेरे एक रक्ताणु में वह सब जैसे एकत्र सिमट आया है। माँ, पिता, भाई, भाभियां, परिजन, वैशाली के महल और वैभव, सभी कुछ तो जहाँ का तहाँ है। चाह कर भी चिन्ता नहीं कर पाती, कि मेरे उस आकस्मिक विलोपन से मेरे आत्मीयों पर क्या बीती होगी, बीत रही होगी? मेरे विछोह का कितना गहरा आघात मेरी वृद्धा माँ को लगा होगा? · · क्या करूँ, कोई शोकसन्ताप और विरह-वेदना मेरे जी को विकल नहीं कर पाती। क्या जड़ हो गयी हूँ?
ऐसा तो नहीं लगता। · · 'महलों का वह ऐश्वर्य-विलास और यह कारावास, बहुत ही संचेतन और एकाग्र चेतना से एक साथ भोग रही हूँ ।... अपने वातायन की मेहराब पकड़ कर, सामने के नील अन्तरिक्ष में तैरती, उस मलय-कपूरी तन्वंगी बाला को, इस क्षण भी अपनी शिराओं में ज्यों
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