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________________ १९८ के सहारे बैठी मैं सचिन्त भाव से बापू की प्रतीक्षा कर रही थी। उनके मरने-जीने की चिन्ता करने वाला इस संसार में कोई नहीं था, यह मैं अच्छी तरह जानती थी। · · · मध्याकाश में जेठ का सूरज तप रहा था। प्रचण्ड लू भरी उस दुपहरी में एकाएक बापु सहन में दिखायी पड़े । उनके पैर धुलाने को वहाँ कोई नहीं था। वे पसीने से तर-बतर, धूल-धसर देह और चेहरे के साथ. बहुत मलिन, विषण्ण और क्लान्त दिखायी पड़े। उनकी वह निरीह, कातर मुद्रा मुझे असह्य हो गयी । क्या उनके लिये संसार में किसी को प्रतीक्षा नहीं . . . ? मुझ मे रहा न गया । उट कर आँगन के कदली-क्यारे के पास चौकी बिछा दी, और कुम्भ में जल तथा तौलिया लेकर खड़ी हो गयी। माँ के आँचल की झलक पाते ही, जंगल में भला-भटका बालक आश्वस्त हो जैसे पास ढलक आये, वैसे ही बापू चौकी पर आ खड़े हुए । मैं कुम्भ से जल धारा उनके पैरों पर डालने लगी। • क्षण भर मन-मन ही सोचा · इन चरणों को अपने हाथों धो सकूँ, ऐसा भाग्य मेरा कहाँ ? मेरी आँखें उमड़ आयीं। मुझ से रहा न गया, मैं चुपचाप उन चिर श्रान्त गौर चरणों को अपने हाथों से धोने लगी । आँखें उमड़ती ही चली आयीं । आँसू छुपाने को ग्रीवा एक ओर मोड़ ली । कि तभी मेरे ढेर सारे काले-काले, भंवराले लम्बे केशों का जूड़ा खुल कर, सारी केशराशि बापू के पैरों पर आ गिरी और क्यारे की कीचड़ में उन केशों के छोर सन गये । बापू से रहा न गया, उन्होंने तुरन्त ही मेरे केशों को दोनों हाथों से सादर उठा कर, मेरे कन्धे पर डाल दिया । · · ·इसके पहले कि मेरी सिसकी फूट पड़े, मैं द्रुत पग वहाँ से भाग खड़ी हुई। · · 'पता नहीं कब कैसे मूला सेठानी जाग उठी थीं, और अपने कक्ष के अलिन्द पर से उन्होंने यह दृश्य देख लिया था। · · 'साश्चर्य उसी साँझ अचानक देखा कि बापू को जाने किस अज्ञात बाध्यता के कारण कुछ दिनों को कौशाम्बी से बाहर चले जाना पड़ा है। · · 'अगले दिन बड़ी भोर ही अनभ्र वज्रपात-सा स्वामिनी का आदेश सुनायी पड़ाः 'आओ महारानी, तुम्हारे काले-कुटिल केशों के इन नागों को नागलोक पहुँचा दूं, नहीं तो मेरे घर का सर्वनाश हो कर रहेगा।' __ मैं समझ गयी, किस मूल में से यह विष उमड़ आया है। संज्ञाहत, शून्य, स्तंभित हो रही। · · 'अगले ही क्षण मेरी गर्दन ढकेल कर नापित की कैंची के नीचे ठेल दी गयी। चन्दना के जिस केशपाश से देवी आम्रपाली तक ईर्ष्या करती थी, वह विपल मात्र में कट कर उसकी आँखों आगे ढेर हो गया। पिटारी में बन्द करके नागों को रसातल पहुँचा दिया गया। . . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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