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गृह-स्वामिनी के अधिकार-क्षेत्र की बन्दिनी थी। उनका आतंक इतना भयावह था, कि उस घर के साये में प्रवेश करते हुए आकाश की मुक्त पंखिनी भी डरती थी । भूल से आ जाये तो उसकी बोली बन्द हो जाती, उसके पंख मानो कट से जाते । एक दासी के नाते उच्छिष्ट या बासे अन्न पर ही मेरा निर्वाह था। पर अन्न जीविता मुझ में आरंभ मे ही नहीं थी, सो बचे-खचे फल-मूल से ही मैं सन्तुष्ट हो रहती थी।
__ श्रेष्टि चुपचाप मेरी अचूक परिचर्या, अखट धैर्य और सहिष्णुता को देख कर वहुत कातर विगलित दिखायी पड़ते । कई बार एकान्त का अवसर पा कर वे कपिशा के अंग्र. या सुदूर गान्धार के दुर्लभ फलों की छोटी-सी टोकनी दुवका कर मुझे दे जाते । मझे लगता था कि कभी भी लंका-काण्ड हो सकता है । और बापू के चिर मर्माहत हृदय को मरणांतक आघात लग सकता है । सो एक दिन मैंने धीरे से कह दिया :
'बापू. इस तरह क्या इस घर में मुझे कोई रहने देगा ? यह क्या कम है, कि आपके वात्सल्य की छाँव में, व्याध के तीर से त्राण पा कर, एक नीड़हारा पंखिनी मुरक्षित है । आपकी सेवा करने का भाग्य मेरा नहीं, पर आपकी आँखों आगे हूँ, यही मुझ अभागिनी के लिए क्या कम सन्तोष की बात है ? · · ·और किसी दिन निकाल बाहर कर दी गयी तो, · · 'तो' : 'तो' : 'तुम्हारा क्या होगा . . . बापू. . . ?' ___ इसके बाद मेरे लिये चीज़-वस्तु लाना उन्होंने बन्द कर दिया था। पर देखती थी, मेरे तिरस्कार, अपमान और उपेक्षा को देख कर उनका हृदय सदा टीसता रहना था । मैं उनके पूजा-गृह की परिचर्या करती, अपने हाथों मब झाड़-पोंछ कर, उपकरणों को धो-मांज कर रखती। बाग़ की कुइया में से प्रासुक जल का भृगार भर ला कर रख देती। पूजा के फूल-फल, दीप, धूप, नैवेद्य सब सजा कर रख देती। ब्राह्म-मुहूर्त में किसी के उठने से पहले ही यह सारी व्यवस्था मैं चुपचाप कर देती थी। किसी को पता ही नहीं चल पाता था। उसके उपरान्त अपने मामायिक ध्यान में बैठ जाती। गहचर्या आरम्भ होते ही, दासी ठीक समय पर सेठानी की चाकरी में हाज़िर हो जाती। मैंने देखा कि मेरी इस अदृश्य सेवा से बापू गहरी तृप्ति और शान्ति अनुभव करने लगे थे ।
किन्तु कुटिल नियति, सारी सावधानियों को विफल कर, किस समय घटम्फोट कर देगी. कौन जान सकता है। कैसी षडयंत्री हो कर आयी थी, ग्रीष्म की वह भयावह दोपहरी ! · · बापू को उस दिन अपने गाँव-खेतों से लौटने में बहुत अबेर हो गयी थी। भोजन के उपरान्त घर में सब विश्राम करने जा चुके थे। बापू का निजी भृत्य भी योगात् सो गया था। उस सन्नाटे में ओसारे के एक खम्भे
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