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________________ १९४ 'नहीं मान, मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं । अपने लिये, और अपनी इन सहोदराओं के लिये मैं ही काफी हूँ। कहा न अपनी खोज में निकली हूँ, तुम्हारी नहीं । और इन खाँचियों निर्दोष सुन्दर आत्माओं के जख्मों में, अपना पता कुछ-कुछ पा गयी हूँ । इनकी भय, आरति, और आसन्न पीड़नबलात्कार से काँपती - थरथराती नसों मैं मैंने अपनी जागृत जीवनी-शक्ति का परिचय पाया है । इनकी आशाहीन अँधियारी आँखों की आरसी में मैंने अपना एकमेव चेहरा स्पष्ट देख लिया है । इनके साथ मैं भी बिकूंगी, और इनकी ही तरह अपने अन्धे भाग्य को, किसी धन सत्ता के अँगूठे तले दब कर एक बार भरपूर भोगूंगी। देखूंगी, कि उस अँगूठे में कितना बल है, उसके बलात्कार की सामर्थ्य कितनी दूर तक जा सकती है । , 'मेरी महारानी-दीदी मृगावती, तुम्हारी ऐश्वर्य नगरी कौशाम्बी के चौराहे पर, तुम्हारी लाड़िली बहन चन्दनबाला दासी- पण्य में बिकने को खड़ी है । 'वत्सराज उदयन तुम्हारी मातंग-विमोहिनी वीणा का संगीत-सौन्दर्य नारी-निर्यात के रक्त में नहाया हुआ है । तुम्हारी चन्दन मौसी, तुम्हारे अजेय विक्रम - प्रताप, कला, और प्रणय-लीलाओं की छाँव में नीलाम पर चढ़ी है ..! 'उदयन के मौसेरे भाई वर्द्धमान, सुनो, मैं तुम्हें नहीं पुकारूँगी ! वृषभसेन श्रेष्ठि की इस हवेली में रहते, कितने दिन, मास, वर्ष बीत गये हैं, उसकी गिनती मेरे पास नहीं है । जिस क्षण तुम्हें पहली बार देखा था, मान, उसी मुहूर्त में बाहर के समय का भान मानों चला गया था । भीतर के समय में ही तब से जीवन की यह विचित्र यात्रा आरम्भ हो गयी थी । • कष्ट की काली रात के सिवाय और कोई पथ तुमने मेरे लिये नहीं छोड़ा था, महावीर ! तब बाहर के विषम चक्रावर्तों के समक्ष, भीतर के स्वसमय की शुद्ध क्रिया में जीने में को मैं विवश हो गयी थी । वह विवशता ही मेरे लिये वरदान बन गयी, यह तुम्हारे सिवाय कौन जान सकता है । भाषा - परिभाषा से परे के उस भवितव्य को केवल भोगते ही तो बना है । कष्ट की तो अवधि न रही, पर उसकी अवमानना मुझसे न हो सकी । तुम्हारी दी हुई दुःख की हर थाती को, छाती से चाँप कर, अपने भीने आँचल में उसे सहलाती रही । इतना सुख था उसमें कि कभी अणु मात्र भी कोई अनुयोग अभियोग मन में नहीं आया । बरसों पहले, उस दिन कौशाम्बी के दासी - चौहट्टे पर श्रेष्ठि वृषभसेन का रथ एकाएक अटक गया था । निकट आकर एक टक वे मेरी ओर देखते रह गये थे । उस भव्य गौर वर्ण भद्र मुख पर एक विचित्र अनतिशय विषाद था । और उन आँखों में बिछल रहा था करुणा का समुद्र । अकारण वात्सल्य से आविल थी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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