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मेरी धर्मानियाँ प्रचण्ड प्रतिकारी रोष और विद्रोह के लावा से उबलने लगती थीं । आज अपने को अपनी इन बहनों के साथ दासी- पण्य में बिकने को खड़ी पा कर, मेरी छाती में ऐंठती चिर दिन की एक मर्म-पीड़ा को जैसे गहरी शान्ति मिली। उनके सुन्दर निर्दोष मुखड़ों, उनकी भोलीभाली निरीह आँखों, उनके अनिश्चित, अरक्षित भाग्य - भविष्य को खुली आँखों सामने देख कर, अपने कुलीन रक्त के प्रति मेरे धिक्कार का अन्त नहीं था ।
ठीक ही तो हुआ । • अपने ही राजवंशी रक्त के शताब्दियों-व्यापी, पीढ़ियों-व्यापी अनाचार का बदला, अपने ही हृदय के खून से चुकाये बिना आज क्षण भर भी चैन नहीं है । उनमें से हर लड़की अपने आप में एक मूक वेदना का द्वीप बनी खड़ी थी । आर्यावर्त के समर्थों के पशुत्व ने, उनको निरी लाचार आखेट - पशु बना छोड़ा था ।
टुकुर-टुकुर एक-दूसरी को ताकती, वे अपने अन्धे भविष्य की अँधेरी खन्दक में ढकेल दिये जाने की प्रतीक्षा में थीं। एक नरक से निकल कर, दूसरे नरक में फेंक दिया जाना ही, उनके जीवन का एकमात्र अभिक्रम था । उन सब की ओर देखती, मैं अकुला कर मन ही मन बोली :
'मेरी प्यारी बहनो, सदियों से जो निर्घण अत्याचार तुम पर अभिजात कुलीनों ने किये हैं, उन सब का बदला तुम मुझ से जी भर चुकाओ । मैं आर्यावर्त के चूड़ामणि राजवंश इक्ष्वाकुओं की एक बेटी हूँ। मेरी नसों में ऋषभदेव, भरत, रघु और राम का रक्त बहता है । और मैं तुम्हारी एकमात्र अभियुक्त हो कर तुम्हारे सामने खड़ी हूँ। जो चाहो दण्ड मुझे दो, सहर्ष झेलूंगी । भारतों के समस्त इतिहास में व्याप्त, तुम्हारे शोषणपीड़न का प्रतिशोध लेने को, सूर्यवंश की इस जाया का रक्त कम नहीं नहीं पड़ेगा । जो तुमने और तुम्हारी पीढ़ियों ने आदिकाल से भोगा है, उस नरक का सहर्ष वरण करने आयी हूँ | ताकि उसे तलछट तक जानूं, जीऊँ, भोगूं, और उसके मूलों को अपनी नसों में धारण कर, अपनी आत्माहुति से ही उन्हें निर्मल जला कर भस्म कर दूं ।
'वर्द्धमान, आर्यावर्त के चौराहों पर मूक रुदन से बिलखती इन सहस्रों अनाथनियों को ताणहीन दशा में छटपटाती रहने को छोड़ कर, तुम किस मुक्ति की खोज में, निर्जनों में भटक रहे हो ? लोक में जीवित मानवता को, मनुष्य द्वारा ही रचे गये फाँसी के फंदों से जो मुक्तात्मा नहीं छुड़ा सकता, उसकी लोकोत्तर मुक्ति का मेरे मन कौड़ी भर मूल्य नहीं । उसका अनन्त ज्ञान और अनन्त वीर्य मुझे आज पुंसत्वहीनता का एक पर्याय ही लग रहा है । क्या कोई पुरुषोत्तम हो कर, आदिकाल के पीड़ित लोक से यों पलायन - सकता है
कर
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