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दासियों को दासी चंदना
एक विशाल सुन्दर नगरी के चौराहे पर पहुँच कर, भील ने मुझे बैल से उतरने को कहा । उतर कर पाया कि अपने जैसी ही कई अनाथ, सर्वहारा, देश-देश की सुन्दर स्त्रियों के बीच घिरी खड़ी हूँ । भील ने उस नारीसमूह के सरदार से कुछ बातचीत की फिर कुछ सुवर्ण मुद्राएँ पा कर मेरी ओर तरसभरी आँखों से देखता, वह नगर की भीड़ में खो गया । थोड़ीही देर में पता चल गया कि यह जगत विख्यात विलास नगरी कौशाम्बी का दासी - पण्य है । और मैं दासियों के सौदागर के हाथ बेच दी गयी हूँ ।
जो हुआ है, ठीक ही तो हुआ है । बचपन से ही आर्यावर्त के दासी-पण्यों के बारे में सुनती रही हूँ । मनुष्य की निराधार, अनाथ, नामकुल - गोत्रहीन, सुन्दरी बेटियाँ इन पण्यों में बेची जाती हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्णों के उच्च कुलीन, अभिजात वर्गीय लोग अपने सुवर्ण के मोल इन रूपसियों को खरीद कर अपने अन्तःपुरों में सेवा-दासियों के रूप में रखते हैं । क्षत्रिय राजन्यों, और धनकुबेर श्रेष्ठियों की सर्व मनोकामना पूर्ति के हेतु यज्ञ-यागादि करने पर, ब्राह्मण पुरोहित विपुल द्रव्य और भोग-सामग्रियों के साथ ही, कई-कई सुन्दरी दासियाँ भी दक्षिणा में पाते हैं । हमारी वैशाली में भी अभिजातों के घर क्रीत दासियाँ तो होती हैं, पर वहाँ उनका शोषणपीड़न उतना नहीं होता । कोई अत्याचार बलात्कार भी नहीं । यथा सम्मान सेविका के रूप में वे रहती हैं। पर सुनती रही हूँ, अन्य महाराज्यों में मनुष्य की इन लावारिस बेटियों पर अमानुषिक जुलम-ज़ोर अत्याचार होते हैं । सत्ता - प्रमत्त राजन्यों और श्रेष्ठियों के महालयों में, तथा दक्षिणा जीवी मालदार याजनिक श्रोत्रियों के घरों में, वे उनकी दुर्मत्त भोग- लालसाओं की आखेट हो कर रहती हैं ।
ठीक ही तो आयी हूँ, अपनी इन चिर काल की बिछुड़ी बहनों के बीच | इनकी जीवन-कथाएँ प्रायः अपनी दीदी - महारानियों से सुन कर मेरे प्राण हाहाकार कर उठते थे । अपने कमरे में जा कर पड़ जाती, और आँचल मुँह में दे कर फफक-फफक कर रोती थी । इनके दुर्भाग्यों और डिपत्तियों की करुण गाथाएँ मेरी समूची चेतना को हताहत कर देती थीं ।
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