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• · 'अचानक एक तीर सन्नाता हुआ मेरी आँख के कोने के पास से गुज़र गया। पलक मारते में मेरा होश जाता रहा। · · 'होश में आने पर देखा, वह काला भयंकर अरण्य, स्वयम् देह धारण कर मानों सामने खड़ा
. . . भीलराज, क्या चाहते हो?'
'अपनी वनदेवी की आराधना करते उमर बीत गयी। · · 'आज साध पूरी हुई। मेरी नागकन्या मेरे लिये प्रकट हो गई !'
भील की आँखों में इस सारे हिंस्र जंगल की भूख दहाड़ती दिखायी पड़ी। सारी चराचर सृष्टि की चिर अतृप्त वासना। काश, इसे तृप्त कर सकती! पर अपनी इस एक स्वल्प, लचीली, नाजुक काया को ले कर, क्या इस विराट् बुभुक्षा को शान्त कर सकूँगी · · ·? नहीं, इस काया की सीमा में वह सम्भव नहीं। क्या मेरे इस शरीर के भीतर, कोई ऐसा दूसरा शरीर नहीं, जिसका पार न हो, अन्त न हो? अपने को जानती ही कितना हूँ ? शायद किसी दिन । .
किरातराज चण्डकाल ने कई दिन अनेक तरह से मेरी सेवा-परिचर्या की। मुझे बहलाया-भुलाया। वन-फूलों के बिछौने बिछाये, वनौषधियों की दिव्य मदिरायें सामने धरी। · · 'रक्षा और चिर सुख का आश्वासन दिया। पर क्या करूँ, मैं उसका मनचीता न कर सकी। रात-दिन उसी तप्त चुभीली चट्टान पर पड़ी उस भील की कातर आर्त विकलता को देखती रहती थी। वनचारी जंगली हो कर भी, वह बलात्कारी नहीं था। पर सर्प जिस वासना से दंश करता है, बिच्छू जिस पीड़ा से उमड़ कर काट लेने को विवश होता है, भालू के पंजे जिस हिंसा से विवश हो कर फाड़ खाने को लाचार हो जाते हैं, वही बेबस और रक्ताक्त हिंस्रता उस भील की आँखों में सुलगती रहती थी। काश, प्राणि मात्र के रक्त में चिरकाल से जल रही इस पिपासा की दावाग्नि को सदा-सदा के लिये शान्त कर सकती। . . . मेरे कुंवारे स्तनों में यह कैसा दूध का पारावार-सा उमड़ता है। हाय, यह
अज्ञानी भील क्या मेरी इस पीर को समझ सकेगा? . . . .. . कई दिनों बाद भील हार कर मुझसे बोला : 'चलो सुन्दरी, तुम्हें तुम्हारे देश पहुँचा आऊँ !' . • “सोचा : क्या सचमुच यह जंगली बर्बर पुरुष मेरे उस देश का पता जानता है, जहाँ जाने को जगत की सारी मायाममता त्याग कर निकल पड़ी हूँ ? ...
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