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________________ आँखों में जो आर्त तृषा देखी, वह मेरे लिये सर्वथा नयी थी । मुन्दर रूप की आरसी में, ऐसा असुन्दर और कुरूप भाव मैंने कभी नहीं देखा था । पद्मराग मणि के प्याले में जैसे कोई पिघली हुई विषाक्त ज्वाला लपलपा रही थी । १९० 'हठात् दो सशक्त पुरुष- भुजाएँ फुंफकारते पीले नागों -सी मुझे घेर लेने को बढ़ीं। और मैं बिजली की तरह कड़क कर, उड़ते विमान तले गुज़र रही, एक ख़न्दक में कूद पड़ने को हुई । तभी एक कोमल नारी- कण्ठ की आह, अचानक सुनायी पड़ी। विद्याधरी मदनवेगा ने आ कर अपनी बाँहों में मेरी कूदने को उद्यत काया को जकड़ लिया था । क्रुद्ध भृकुटियों से उसने अपने विद्याधरराज की भर्त्सना की, पर बोली कुछ नहीं । विद्याधर धरती में गड़ रहा । विद्याधरी मेरी काया की अग्निलेखा को देख कर भयभीत, स्तंभित हो रही । उसके संकेत पर विद्याधर ने विमान धरती पर उतारा। मैं तत्काल छलांग मार कर एक चट्टान पर कूद पड़ी । 'पलक मारते में विद्याधर का विमान अदृश्य हो गया । एक भयावह निर्जन अरण्य में, अकेली इस चट्टान पर खड़ी हूँ । सल्लकी और बाँसों की घनी अरण्यानी में, वनस्पतियों की आदिम सुगन्ध से भरी ईषत् गर्म हवा सीटियाँ बजा रही है । मनुष्य का यहाँ कोई चिह्न नहीं दिखायी पड़ता । वनौषधियों की झाड़ियों में, सुगन्ध से मूर्च्छित भयंकर नागों के युगल रतिक्रीड़ा में लीन हैं । 'ओ आरण्यक, समझ रही हूँ, इसी सर्प-संकुल कुटिल अटवी में से तुम्हारा मार्ग गया है । भय की इसी भुजंगम घाटी में, आज ग्यारह बरस हो गये, तुम दुर्दान्त वेग से भ्रमण कर रहे हो । पर मानवीय रूप में यहाँ कोई तुम्हारा आकार-प्रकार शेष नहीं है । निरी नग्न मृत्यु के इस भयारण्य में, भालुओं, रीछों, सरिसृपों के बीच तुमने मुझे ला पटका है । और स्वयम् आप जाने कहाँ चम्पत हो ? नहीं, मुझे तुम्हारी रक्षा और शरण की जरूरत नहीं। मैं तुम्हारी खोज में नहीं, अपनी खोज में आयी हूँ। और इस संकट की घाटी में, मुझे तुम्हारा नहीं, अपनी मौत का इन्तज़ार है । मेरे रक्त के प्रत्येक स्पन्दन में इस क्षण केवल विनाश की वीणा बज रही है ।' 'नहीं, अब धीरज नहीं है । देह का रोंया-रोंया नरक के सेमर-वृक्षों के तीर - फल जैसे पत्तों की तरह धारदार हो कर, अपनी ही मांस-पेशियों को तराश रहा है। पीड़ा की सर्प- कुण्डली में गुंजल्कित होती हुई, अपने एक-एक साँधे को जैसे ऐंठ कर तोड़े दे रही हूँ । मूर्छा के ये नीले-हरे हिलोरे, जाने किस काले पानी की ओर मुझे ढकेल रहे हैं। लगा कि अभी थोड़ी ही देर में इस अस्थि-पंजर से मुक्त हो जाऊँगी । ..... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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