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________________ . १८९ · · सूर्योदय की बेला में, नूतन वसन्त की हरियाली आभा से मंडित, जिस कानन-भूमि में अपने को विचरते पाया, उसके भूगोल का कोई अनुमान पाना शक्य नहीं लगा। · · 'नाना रंगी फूलों की छाया से चित्रित इस सारे आकाश-वाताम में एक विचित्र दूर-देशीय गन्ध व्याप्त है। वहाँ दूर पर जो हरियाले टीले दिखायी पड़ रहे हैं, उनकी तृणाली में कहीं गायें चर रही हैं, तो कहीं भेड़-बकरियाँ । लाल-पीली ओढ़नी ओढ़े कोई एकाकिनी लड़की चौपायों को हाँक दे रही है। कौन विदेशिनी है यह कन्या ? क्या कहीं इसका कोई घर होगा ? लग रहा है, टीले में से ही जन्म लेकर वह वहाँ खड़ी हो गयी है। उस तृणाली के अन्तराल में जो आकाश झाँक रहा है, वही उसका घर है। हाय, वह कितनी अकेली है ! क्या वह भी मेरी तरह अपने ही को खोज रही है ? · · 'टीले के पर पार से बाँसुरी का गान सुनायी पड़ रहा है। लड़की चौंक उठी है। · · 'अरे इस निर्जन में उसे किसने पहचान लिया है? - नहीं. इस पहचान के देश में नहीं ठहरना चाहूँगी। · · ·और मैं तेज़ी से भागती हुई, अपने ही से भागती हुई, जाने कितने वन-प्रदेशों के सुरम्य छाया-प्रान्तर पार कर गई। · · 'दिन चढ़ आया है। सामने दिखायी पड़ी है, एक वन-पुष्करिणी। प्राकृतिक श्वेत पत्थरों के घाटों से वह घिरी है। पीले कमलों की सोनल केसर उस पर नीहार-सी टॅगी है । सरसी के जल में पैर डाल कर, उसके घाट पर बैठ गयी हूँ । एकाएक अपने ही मुखड़े की परछाँही देख कर काँप उठी हूँ। · · यह कौन मायाविनी है ? नहीं, नहीं पडूंगी इसके सम्मोहन-जाल में। यह पुष्करिणी की सौन्दर्य-देवता मुझे आत्म-विमोहित किये दे रही है। पर हाय, इससे बच कर निकलना कठिन हो गया है ! किसे पुकारूँ इस निर्जन में, कौन मेरा त्राण करेगा इस मोहिनी से? · · ·और आँख मींच कर मैं अपने बावजूद चीख उठी . . ! · · 'आँख जब खुली तो देखा, कि एक अति रमणीय विमान की छत पर एकाकी खड़ी उड़ी जा रही हूँ। नीचे पड़ी धरती का सारा भूपट ऐसा लगा, जैसे एक विशाल चित्र कुछ सूक्ष्म रेखाओं में सिमटता जा रहा है। औचक ही किसी पदचाप से चौंक कर पीछे देखा । · · ‘एक रत्न-किरीट धारी सुन्दर युवा सामने खड़ा है। · · सहसा ही उसने सम्बोधन किया : 'सुन्दरी, वैताढ्यगिरि का विद्याधर वसन्त-मित्र, तुम्हारी एक चितवन का प्रार्थी है !' मेरी सारी नाड़ियाँ झनझना उठीं। सूखे पत्ते-सा थरथराता मेरा शरीर, मानों अभी-अभी झर पड़ेगा। उस सुन्दर युवा की रातुल कमल-सी सुन्दर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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