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________________ १९५ वह दृष्टि । नीलम के कण्ठहार से विभूषित अपने उस समर्थ क्रेता पर मुझे जाने कैसी दया-सी आ गयी थी ! श्रेष्ठि मौन ही रहे । कोई मोल-भाव उनके वश का नहीं था । आँख के एक इंगित पर, सौदागर का मुंह माँगा मोल उन्होंने उसकी हथेली पर रख दिया । मैं सहज ही अनुगामिनी हुई, और रथ में जा बैठी भाव से सर झुका कर ही अपने भाग्य को समर्पित हुई थी लेकिन सहसा ही बोध हुआ था, कि स्वामिनी हो कर ही रथ पर चढ़ी हूँ । : श्रेष्ठ वृषभसेन की सेठानी, सुन्दरी दासी को सामने पा कर चौकन्नी हो गयी । उन काली-पीली आँखों की वह कराल दृष्टि आज भी भूली नहीं है । भाग खड़े होने को जी अकुला उठा था । पर क्रीता दासी के जी जैसी कोई चीज़ कैसे हो सकती है ! अपनी नियति को शिरोधार्य कर, आज्ञा पालन को प्रस्तुत हो गयी । श्रेष्ठि निःसन्तान थे । देखती थी, मुझे पुत्त्री के रूप में पा कर वे भर आये थे। घर की दासी होने के कारण, गृहस्वामिनी मुला सेठानी के शासन में ही मुझे रहना होता था । एक तो दासी होने के कारण ही, स्वभावतः मालकिन के अपमान, उपेक्षा और दण्ड-ताड़न की पात्र ही हो सकती थी । तिस पर दासी अनन्य रूपसी थी, सो सेठानी के तिरस्कार और डाह का अन्त नहीं था । सेठानी के घायल गर्व की तुष्टि के लिये, मुझसे अच्छा आखेट और कहाँ मिल सकता था । सो मुझे निकाल बाहर करना भी उन्हें सह्य नहीं था । मेरा प्रतिपल अपमान, तिरस्कार, शोषण, पीड़न करके, जो तृप्ति वे अनुभव करती थीं, वह अन्यथा कैसे सम्भव थी । फिर मुँह माँगे मोल पर ख़रीद कर लायी गयी थी, सो मेरी हर बोटी से, हर पल दाम तो वसूल करना ही रहा । मुझे निकालना हर तरह से सेठानी के लिए बहुत घाटे का सौदा था । पर श्रेष्टि की सहज स्नेह-भाजन पुत्त्री के रूप में ही क्यों न हो, एक सुन्दरी कन्या को यों विनत - नयन, स्वामी की तनिक सी सेवा करते देख कर भी, सेठानी के तन-बदन में आग लग जाती थी । हाय रे मानव मन, विचित्र कुटिल है तेरी गति । कषायों द्वारा प्रति पल अपने पीड़न में भी तू कितना गहरा रस लेता है ! मानों कि कषायों और परितापों के सहारे जीना ही तेरा एक मात्र सुख हो गया है । इस हवेली में आ कर, ना कुछ समय में ही समझ गयी थी, कि वयोवृद्ध श्रेष्ठ के हृत्तल में कहीं बहुत गहरे एक रिक्त निरन्तर टीस रहा है । उनकी आँखों में एक विचित्र शून्यमनस्कता और उदासी सदा बनी रहती थी । मानों एक अन्तहीन वीरान में उनका जी सदा खोया-भटका रहता था । कई बार एकान्त में उनकी शून्य मुद्रा देख कर मेरा मन हाहाकार कर उठता था । बचपन से ही ऐसी प्रकृति पायी थी, कि किसी का भी कष्ट मुझ से देखा नहीं जाता था । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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