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________________ १८२ उस फुनगी पर उड़ रहे, पक्षी के पंख पकड़ कर, मैं उस पार जाने कहाँ उतर गयी उस पीली किरण-बाला की खोज में जाने को अकुला उठती थी। वसन्त ऋतु की निस्तब्ध दुपहरियों में, और संध्याओं में, अज्ञात आम्रडाली में कुहकती कोयल की टेर मेरे प्राण को जाने किन वनान्तों में उड़ा ले जाती थी। लगता था, जाने कौन अन्तहीन पुकार के साथ मुझे ही टेरता चला आ रहा है। · · मंजरियाँ अंबियां हो जाती थीं, अंबियाँ आम हो कर खा ली जाती थीं। और कोयल की टेर न जाने किस तट में डूब जाती थी। मेरा जी चाहता कि मॅजरियाँ कभी न अंबियाएँ, वे आम हो कर कभी न खायी जाएँ। बस अपने ही रक्त की-सी उनकी खट-मीठी गन्ध सदा वातास में बहती रहे और कोयल सदा बोलती रहे। कोई मुझे सदा टेरता ही रहे । · पर आम खाने वाले, मेरा शाश्वत वसन्त मुझ से छीन कर मुझे बहुत हताहत कर देते थे। उन पर मेरे रोष का अन्त नहीं था। स्वयम् ही अपनी मंजरी बन कर, स्वयम् ही उसकी गन्ध हो कर, अपने प्राण की कोयल का उन्मन् गान उसमें सुनती रहती। खाने-पीने वाले जगत के लोगों से मेरा मन दूर ही दूर भागा फिरता । मानों उनसे मेरा कोई नाता ही न हो। ग्रीष्म में पके और पियराते आमों की गन्ध से आकुल, श्यामल अमराइयाँ मुझे पुकारती थीं। मैं उनके तले खेलने चली जाती थी। जाने कौन एक श्यामल-नील मोहन तनों की ओट मुझसे आँख-मिचौनी खेलता था। उसके पीताम्बर की कोर मात्र आँख में झलक जाती थी। और एक मुस्कान अपने चारों ओर भाँवरें देती-सी लगती थी। • दूर कहीं जंगल में अमलतास की झीमती फूल-डालों में मेरी पलकें तन्द्रालस हो कर स्वप्नलीन हो रहतीं। पास ही कृष्ण-चड़ा की केसरिया फूलों से लदी वनाली में किसने मेरा चीर-हरण कर लिया है ? सारा जंगल एक टक मेरी ओर देख रहा है । . . · · · लाज से मर रहती थी। अपने ही भीतर की सरसी में डुबकी लगा कर छुप रहने के सिवाय और चारा ही क्या था ? पर जलों की उस गोपन गहराई में भी, एक लचीले शरीर का जो गहन मार्दव चारों ओर से मुझे आवरित कर लेता था, उससे बचत कहाँ थी। .. पांशुल दुपहरियों में, उड़ते पत्तों के धूसर प्रान्तरों में भटक जाती थी। दूर-दूर तक छितरी किंशुक-झाड़ियों में झरते पलाश-फूल मेरे सीमन्त में सिन्दूर भर देते थे। . . · · कोयल की डाक दूर-दूर तक सुनाई पड़ती है। हाय, किस तट से वह आयी थी, और कहाँ लौट रही है, उसका पता किससे पूर्वी ? बिछुड़न की इस पीर का साथी, इस जगत में कहाँ मिलेगा? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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