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आषाढ़ के पहले ही दिन वनान्त में नील मेदुर मेघ उमड़ आये हैं । बादलों की नीरव प्रशान्त में छाया में मयूर पंख खोल कर नाच उठे हैं । उनके केकारव से सारी अरण्यानी पागल हो उठी है । नदी पार के अंजन - छाया छाये नील प्रान्तर में किसकी डाक सुनायी पड़ती है ? लौट कर जाने को कोई महल-वातायन अब पीछे नहीं छूटा है । बादलों के इन गन्धमादन हस्ति - कानन में जिसकी मातंग - मोहिनी वीणा बज रही है, उसका पता पाये बिना प्राण को विराम नहीं है ।
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सिन्धुवार और सप्तपर्ण की वनालियों में कृष्णसार और कस्तूरी मृग मन्त्र - मोहित से खड़े दिखायी पड़ रहे हैं। इनकी नाभि की कस्तूरी ने मेरी साँसों को छा लिया है । - बेतहाशा रथ दौड़ाती हुई वाग्मती के तीर पर आ पहुँची हूँ । कहाँ से आयी है यह उज्ज्वल वसना नदी, और कहाँ जा रही है ? क्या इसका कोई घर कहीं नहीं है ? इसकी नीलमी जलिमाओं में रिलमिलाती मछलियाँ मेरी आँखें हो कर रह गयीं हैं । फिर भी इनके जलों के उद्गम मेरी दृष्टि की पकड़ में नहीं आ रहे हैं !
क्यों है यह जगत् ? कहाँ है इसका उद्गम, कहाँ है इसका अन्त ? कौन जान सका है आज तक ? अनेक ज्ञानियों ने, अनेक तरह से इस जगत को कहा है। उनके कथनों में अन्तर है । यदि वे सब सत्य - ज्ञानी थे, तो सभी के कथनों में एकता क्यों नहीं है ? जान पड़ता है, विश्व-तत्व को कहा नहीं जा सकता, केवल अनुभव में साक्षात् किया जा सकता है । लगता है कि अनन्त और अनेकान्त है यह सब, जो दिखाई पड़ता है । और अनन्त सब एक साथ दिखाई कैसे पड़ सकता है ? तो फिर कहा भी कैसे जा सकता है ? काल में इसके परिणमन का अन्त नहीं ।
काल से परे खड़े हुए बिना, काल में चल रही इस जगत की तमाम तरंग - लीला को एक साथ उपलब्ध नहीं किया जा सकता । आँख एक बात कहती है, स्पर्श में कोई और ही बोध होता है, गन्ध और ध्वनि में कुछ दूसरा ही प्रतिभासित होता है। क्या कुछ ऐसा नहीं जिसमें सब इन्द्रियाँ और इनका राजा मन एक हो जायें, और एक ही अनुभूति पा कर, एक ही बात कहें ? क्या कुछ ऐसा नहीं, जिसमें घटन और विघटन एक बिन्दु पर मिल जायें? क्या कुछ ऐसा नहीं, जो उत्पत्ति और विनाश के इस खेल में शरीक हो कर भी, सदा एक वही और अक्षुण्ण बना रहे, और उससे अप्रभावित रह कर उसका सम्पूर्ण बोध पाता रहे ? जो इस खेल को खुल कर खेले, फिर भी इसकी उठान, मिटान और हार-जीत का आखेट न हो, उस सब में एक-सा बना रहे ?
कुछ भी तो यहाँ ठहर नहीं पाता है । जो इस क्षण है, अगले ही क्षण नहीं भी हो सकता है । फिर अपने होने पर कैसे विश्वास करूँ ?
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