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अन्तर- द्वीप की एकाकिनी राजकन्या
तब अपने पीछे छूटी किशोरी की याद वड़ी मधुर कसक के साथ आती थी । स्मृति जागने पर पहलेपहल जब अपने मन से परिचय हुआ, तभी जान गयी थी कि सबसे अलग और अनोखा मन पाया है मैंने । सबसे बिरानी होती-सी ही मैं बड़ी हो रही थी । मानो कि सबसे हट कर और अलग ही जन्मी हूँ । बचपन में माँ की गोद में, निर्जन द्वीप में निर्वासित जिस एकाकिनी राज- कन्या की कहानी सुन कर मैं रो पड़ती थी, होश में आने पर पाया कि वही तो मैं हूँ । उसे खोज कर, उसको अपनी छाती से लगा आश्वस्त करने की जो व्याकुल पीड़ा मेरे वाल्य हृदय में टीमती थी, सो कुछ बड़े हो कर उस तक पहुँच कर ही चैन मिला। यानी वही मैं स्वयम् हो रही ।
उस नि:संग मन-प्राण को ले कर फिर बाहर के लोक में कोई सखीमहेली पाना मेरे वश का न रहा । हमारे गण-राज- कुलों की कई समवयस्का कन्याएँ मुझे आकर घेर लेतीं थीं। अपने महलों, उद्यानों और वनकीड़ाओं में वे मुझे बरबस खींच ले जाती थीं । पर उनके बीच मैं अपने को बहुत ही अजनवी पाती थी । मेरा तो बोल ही नहीं खुलता था । उनके खेलों और क्रीड़ा-कल्लोलों में मेरा जी रंच भी नहीं जुड़ पाता था । वे खींच-खींच कर मुझे अपने बीच लेती थीं, पर मैं गिलहरी की तरह छटक कर डाल-डाल, पात-पात, फुदकती फिरती थी । ऐसा लगता था, कोई बनली हिरनी किसी सुन्दर उपवन में क़ैद कर दी गयी हो। उनके बीच महद्धिक वेश-भूषा और अलंकारों की होड़ लगी रहती थी । उनके अपने - अपने अनोखे प्रमाधन, केशराग और इत्र - फुलैल होते थे । एक से एक बढ़ कर द्वीप- समुद्रों के रत्नों और मुक्ताफलों की उनकी अपनी-अपनी रोमांचक कथाएँ थीं । सुख-वैभव की प्रतिस्पर्द्धाओं के इस जटिल जाल में मेरा दम घुटता था । सो तंग आकर मैं अपने ही एकान्तों में छुपी फिरती थी ।
मेरे वातायन पर से, दूर दिगन्त में कोई एकाकी वृक्ष दिखायी पड़ता था । उसकी फुनंगी पर ठहरी सन्ध्या की अन्तिम किरण को विलीयमान होते एकटक देखती रहती । उसके लुप्त होते ही, मैं बहुत उदास हो जाती थी ।
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