________________
१८०
'वर्द्धमान है, तो फिर चिन्ता किस बात की? वैशाली और मगध की तो बात क्या, सारा जम्बूद्वीप उसकी तर्जनी के इशारों पर टँगा हुआ है !'
· सो तो स्वयम् ही अपनी आँखों देख आयी थी। तुम्हें देख लेने के बाद, कोई सोच शक्य ही नहीं रह गया था।
दीदी के चले जाने के बाद अन्तिम रूप से एकाकिनी हो गयी थी। तब अपने एकाकीपन को आंखों के सामने सदेह खड़ा देखती थी। लेकिन विचित्र लगता था, कि वह तुम्हीं तो हो। मानो कि, उतनी अकेली हुए बिना, तुम्हें संगी के रूप में नहीं पाया जा सकता ! . . .
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org