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________________ १७९ और उनके मुख से हँसियों के फंव्वारे फूट पड़ते थे। .सच ही तो कहती थीं दीदी, उन जैसी हँसोड़ और विनोदी प्रकृति तो हमारे घर में किसी की नहीं थी। कारण-अकारण दुरन्त, अल्हड़ बालिका की तरह वे शरारत, विनोद और हँसियों में कल्लोल करती रहती थीं। उनकी इन कौतुक-क्रीड़ाओं में सभी तंग आ जाते थे। · · पर उनकी अकारण उदासी के एकान्तों का रहस्य मेरे सिवाय कोई नहीं जानता था। इसी से अपने सब परिजनों और दीदियों में, केवल उन्हें ही मैंने अपने अन्तरंग के निकटतम पाया था। इसी कारण जिस दिन अभय राजकुमार उनका हरण कर ले गया था, उस दिन मैं अपने कक्ष को बन्द करके, कितनी रोई थी, कोई नहीं जान सका था। लगता था, वही तो मेरी अकथ अतर्वेदना की एकमात्र संगिनी थीं । अद्भुत साम्य था, हम दोनों की अन्तःप्रकृति में। फ़रक़ इतना ही कर सकती हूँ, कि वे प्रकट में सबके बीच रस-बस कर चुलबुलापन करती रहती थीं, जबकि मैं अपने एकान्तों से ही बाहर नहीं आ पाती थी। हमारे बीच इतना आन्तरिक एकत्व होने पर भी, यह कभी सम्भव न हो सका, कि हम अपने हिये की पीड़ा को होठों पर लायें। जिस पीड़ा का कोई प्रकट कारण ही न हो, उसके विषय में क्या बात हो सकती थी। अपनी-अपनी गहराइयों में डूबते-उतराते, उस अबूझता को चुपचाप सहना ही तो होता था। . 'उस दिन जो अभय राजकुमार उन्हें हर ले गये, उसके बाद वे फिर कभी प्रकटतः अपने पीहर न लौट सकीं । साम्राज्य-लोलुप मगधपति ने चेलना को अंकस्थ करके, मानो वैशाली को अपने पैरों तले रौंदने की आत्मतुष्टि महसूस की थी। उनकी साम्राज्य-स्थापना की राह में, अजेय वैशाली ही तो सबसे बड़ा रोड़ा थी। उस वैशाली की सूर्यांशी बेटी को अपनी शैयाङ्गना के रूप में पा कर उनका. अहंकार असीम हो उठा था। जब मगध और वैशाली का संघर्ष पराकाष्ठा पर पहुंच रहा था, और विदेहों की मुक्तिवाहिनी भूमि को बलात्कारी मागध अपनी फौलादी पदचापों से थर्रा रहे थे, तब बरसों बाद विवश हो कर, पतिदेव की आज्ञा का उल्लंघन कर, गुप्त रूप से दीदी वैशाली आयीं थीं। उसमें भी केवल वैशाली की रक्षा का स्वार्थी भाव ही नहीं था, शायद मगधनाथ की कल्याण-कामना ही सर्वोपरि रही हो। तभी वे सहायता की प्रार्थिनी हो कर, तुम्हारे पास भी आयीं थीं, मान ! पर तुम तो किसी के सगे नहीं थे, अपने तक नहीं। तुमने चेलना मौसी को चोंट देने में कोई कसर नहीं रक्खी थी। पर विचित्र हुआ था, कि वे तुम्हारे निकट अपना हृदय हार आयीं थीं। उनके होठों पर एक ही बात थी : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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