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________________ १७८ फिर यह भी था, कि तुम्हारे जाने के बाद उन ऐश्वर्य-महलों की छतें, दीवारें और सुख-शैयाएँ ही मुझे बैरन हो गयीं थीं। कहाँ रहती थी, और क्या करती थी, पूछ कर क्या करोगे? और वह जानने का होश ही कहाँ रह गया था। बलात् जो पहले ही मिलन में, मेरी सारी गतिविधियों का स्वामी हो गया था, उससे अलग मेरी और क्या गति-विधि हो सकती थी? . . . · · 'बरबस ही आज बालापन की याद आ रही है। देख रही हूँ, सोलह बरस की चन्दन को। अपने ही मृणाल से उच्छिन्न हो कर, दिशाओं के छोरों पर खेलने चली गयी वह कमलिनी। अपनी ही पंखुरियों के आलिंगन में न समा सकने वाली वह चंचल लड़की। याद आता है, वैशालीपति की सबसे सुन्दर, छोटी और लाड़िली बेटी होने से, सारे आर्यावर्त के आत्मीय राजकुलों का मुझ पर बेहद प्यार था। मुझे लिवा ले जाने को, प्राय: ही मेरी सब दीदियों, मौसियों, बुआओं के राज्यों के रथ आते थे। कई-कई दिन वे महालय के राजद्वारों पर मेरे लिए प्रतीक्षमान रहते थे। मां-पिता, भाई, परिजन सब समझा कर थक जाते थे। पर अपने एकान्त कक्ष से हिलने का नाम तक नहीं लेती थी। फिर, कक्ष में ही कहाँ टिक पाती थी। कभी रथ ले कर, और कभी घोड़े की पीठ पर चढ़ कर जाने कहाँ-कहाँ उड़ी फिरती थी। विपुलाचल, वैभार और गृद्धकूट के शिखरों पर खड़ी हो कर, राजगृही के रत्न-कुट्टिम प्रासाद-वातायनों को एकटक निहारा करती थी। कल्पना करती थी, चेलना दीदी इन्हीं महालयों के जाने किस अन्तर-कक्ष में, जाने क्या कर रही होंगी, जाने किस सोच में डूबी होंगी। खड़े जानू पर चिबुक टिकाये, उदासी में इबी उनकी मुख-मुद्रा की छाप ही मेरे मन पर सबसे गहरी अंकित थी। उनके कौमार्य के एकान्तों में उन्हें प्रायः इसी भंगिमा में देखा था। उस समय उनके पास जाने की हिम्मत नहीं होती थी। कभी जी न माना, तो जा कर पीछे से गलबाँही डाल कर, उनकी पीठ पर झूल जाती थी। तब मुझे खींच कर वे गोद में ले लेती थीं, और छाती से चाँप कर कितना प्यार करती थीं। मेरे बालों को सहलाती हुई, मुझे चुम्बनों से ढाँक देती थीं। उनकी भीनी आँखों में बंधे समन्दरों के लौटते ज्वारों को मैं देख लेती थी। उनकी आँखों में आँखें डाल कर पूछ लेती थी : 'दीदी, ऐसे उदास क्यों हो जाती हो? सच बताना, मेरी शपथ है !' रुआंसी हँसी के साथ वे खिलखिलाकर कहती थीं: 'पागल कहीं की, मैं क्यों उदास होने लगी? देखती तो है, कितनी हँसी आ रही है मुझे !' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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