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________________ १७७ थी, सो आज भी पूछ न सकी कि कहाँ चली गयी थी मैं ? पर बड़ी कसक और सिसकियों के साथ बताया था उन्होंने कि तुम आये थे और मुझ को पूछ रहे थे। · · कतई तुम्हें कोई अचम्भा या शिकायत नहीं थी, कि मैं क्यों नहीं हूँ वहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा में! उलटे समर्थन और सामी दी थी तुमने मां के समक्ष, कि मैं जैसी हूँ और जो करती हैं वह सब अचूक और ठीक है : चन्दनबाला ग़लत हो नहीं सकती! .. भाग कर, अपने कक्ष में चली गई थी। द्वार बन्द कर, धड़ाम से फर्श पर जा गिरी थी। फूट-फूट कर रोती ही चली गई थी। धरती मुझ से अलग तो कहीं रह नहीं गई थी, जो फट कर मुझे समा लेती। फटी केवल अपनी ही छाती, और उसमें समा कर जहां पहुंची, वहाँ तुम खड़े ये अविचल और एकाकी, मुस्कुराते हुए। · · 'लोकाकाश का वह तनुवातवलय, जिसके आगे सिद्धात्माओं और परमात्माओं की भी गति नहीं। मैं हार गई। मेरी सारी मतियां और गतियां खामोश हो गयीं। महाप्रस्थान के बाद के इन दस-ग्यारह बरसों में, कई बार तुम वैशाली आये । आकर जब चले जाते थे, तभी हवा में उदन्त सुनायी पड़ता था, महाश्रमण वर्द्धमान यहाँ आ कर चले गये। तुम्हारे बिन चाहे तुम्हें कोई पहचान सके, यह तुमने किसी के हाथ नहीं रक्खा था। अपनी सत्ता का स्वामी जो हो गया था, वह एक ही रूप की इयत्ता का बन्दी हो कर कैसे रह सकता था। जिसे कुछ भी छुपाना नहीं था,' वह हमारे चर्म-चक्षुओं के देखने-दिखाने में कैसे सिमट सकता था? · .. · · ·और फिर तुम्हारे लिये मेरी प्रतीक्षा, वैशाली की सरहदों और राजमार्गों पर कैसे अटक सकती थी? क्योंकि मेरी आँखें तो सदा से तुम्हें क्षितिज के मण्डलों पर चलते देखने की अभ्यस्त हो गई थीं। तारों भरी रातों में तुम्हें अक्सर एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक डग भर चलते देखा था। तब मैं स्वयम् भी कहाँ इस शरीर की सीमा में रह पाती थी? . . . फिर यह भी तो मुझ से छुपा नहीं था, कि अपने काल और लोक की विकृतियों के विरुद्ध, एक अप्रतिरुद्ध षड्यंत्री की तरह तुम उठे थे । तुम निरे पृथ्वी-पट के परिव्राजक नहीं, समस्त विश्वप्राण के परिवाट हो कर विचर रहे थे । तुम वैशाली के राजमार्गों पर नहीं आते थे, अपने सर के बल उसकी कोख के तलातल में धंसते चले जाते थे। तब अपनी कुंवारी कोख में जो फटान की असह्य मधुर पीर अनुभव होती थी, उसी से जान जाती थी कि तुम आये हो । · तब तन-बदन की सारी सुध-बुध ही चली जाती थी । मूर्छा के उस माधुर्य में कब कहां होती थी और क्या करती थी, पता ही नहीं चलता था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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