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________________ १७६ है ? तुम अपनी मर्जी के मालिक हो। और मैं हूँ केवल तुम्हारी मर्जी । फिर देखने-सुनने, मिलने-मिलाने की बात ही कहाँ उठती है ? महालय को न लौट कर, सीधी आयुधशाला को चली गई थी। अश्वपाल को आदेश दिया था, कि मेरा घोड़ा सज्ज करके प्रस्तुत करे। फिर शस्त्रागार में जा कर योद्धा का वेश धारण किया था। ठोकरें मार-मार कर, दीवारों और आलयों में टॅगे, वैशाली के आदि पुरातन महामूल्य शस्त्रास्त्रों का ढेर लगा दिया था। अनन्तर कवच और शिरस्त्राण पर, मनमाने कई शस्त्रास्त्र धारण कर लिये थे। और फिर मुक्त केशों को हवा में लहराती, उन्मादिनी की तरह वैशाली के राजमार्गों पर अपना घोड़ा फेंकती चली गई थी। हाथ में सनसनाती नंगी तलवार को सामने के अन्तरिक्ष में फेंक कर, अपने घोड़े को उछाल कर, उसकी टापों से उसे निर्दलित करती निकल गयी थी। एक-एक कर अपने ऊपर धारण किये सारे शस्त्रास्त्रों को राह पर लुटाती चली गयी थी। मेरी नसों में तुम्हारे शब्दों की मांत्रिक बिजलियाँ लहरा रही थीं। सो शस्त्र मात्र की शक्ति को निरस्त कर देने के उद्वेलन से मैं पागल हो गयी थी। · · ·और देखना चाहती थी तुम्हारी उस अस्मिता और प्रभुता को, जो उस सबेरे वैशाली के जन-जन और आकाश-वातास पर छा गयी थी। केशरिया धारण किये, लिच्छवि युवा-युवतियों के दल के दल, नगर के हर राजमार्ग, हट्ट, पण्य, अन्तरायण, और वीथियो में तुम्हारा प्रशस्तिगान करते, नाचते-कूदते दिखाई पड़ रहे थे। मेरे फेंके शस्त्रास्त्रों को उद्दाम उल्लास के साथ अपने पदाघातों से कुचलते हुए, वे तुम्हारी जयकारों से आकाश थर्राने लगते थे। __.. फिर वैशाली के सिंहतोरण पर पहुँचते-पहुँचते मैंने कवच और शिरस्त्राण भी उतार फेंके थे। मेरा केशरिया उत्तरीय भी, थरथराते कुलाचलों जैसे मेरे कन्धों पर ठहर नहीं सका था । उन्मुक्त केशावलियों को भेद कर उछलती सुनग्ना छाती को दिशाओं पर फेंकती हुई, मैं सिंहतोरण के पार हो गई थी। तुम्हारे जय-निनादों से आक्रांत उस आकाश और पृथ्वी में क्या असम्भव था? तमाम जड़ीभूत मर्यादाएं ध्वस्त हो कर, उस अन्तरिक्ष-मंडल में धूल के बगूलों और घास-फूस की तरह उड़ रही थी। उड्डीयमान प्रभंजन जैसे अपने घोड़े की पीठ पर, कितने भूवलयों और धुवलयों को पार करती चली गई, पता ही न चल सका । · · 'अगले दिन सबेरे ही लौटना हो सका था। · · सामने पड़ते ही माँ मुझे भुजाओं में भींच कर रो पड़ी थीं। इस अनहोनी बेटी से कैफियत मांगने का साहस तो वे कभी कर नहीं सकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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