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नहीं । यूप सूना ही मुँह ताकता रह गया । उससे बँधने की विवशता इस नरपुंगव ने स्वीकार नहीं की । स्वयम् ही इसने बलि वेदी का वरण कर लिया । हज़ारों कण्ठों से 'जय भोलानाथ जय शिवशंकर ! ' की जयध्वनि बरबस फूट पड़ी ।
उस दिगम्बर कामदेव के वधस्थल पर आसीन होते ही, उपस्थित मानव- मेदिनी में मूर्च्छा के हिलोरे दौड़ गये । सहस्रों नारी कण्ठों से कातर सिसकारियाँ फूट पड़ीं । 'हाय, यह किस माई का लाल होगा? धन्य है वह कोख, जिसने इसे जना है ! ' और सहस्र-सहस्र कोमल कोखें, और गोदियाँ उसे झेलने को आकुल व्याकुल हो उठीं । सहस्र-सहस्र रमणी-स्तन उमड़ आये और उनके आँचल भींज गये । मालववसुन्धरा के वक्ष की काली, लचीली, मृदुला माटी धसकने लगी । उसके अतलों भीतर दूध के समुद्र हिल्लोलित होने लगे ।
'बलि-पुरुष पर कमलों और नाना सुगन्धित पुष्पों की मालाएँ बरसने लगीं । मल्लिका, पारिजात और बेमी फूलों की वृष्टि ने उसे ढाँक दिया । मेघ-मन्द्र ध्वनि में, महाऋत्विक मंत्रोच्चाई और स्तोत्र पाठ करने लगे :
• ॐ नमश्चण्डिकायै, ॐ नमश्चण्डिकायै, ॐ नमश्चण्डिकायै
ॐ ऐं ह्रीं चामुण्डायै विच्चे । ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्जवल प्रज्जवल ऐं, ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ।
धां धीं धुं धूर्जटे पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी ।
क्रीं क्रू कालिका देवि शां शीं शुं मे शुभं कुरु ।
हुं हुं हुंकार रूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी । भ्रां भ्रीं भ्रं भैरवी
भद्रे भवान्यंते नमो नम : । अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दं ऐं वीं हं
क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं वोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ।
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'शं शं शं माँ, दं दं दं माँ, महाचामण्डे, महाकाली, करवाली, विकराली, सर्वअसुर संहारिणी, दिगम्बरी. ताण्डवकरी, इंदं बलि ग्रहं ग्रहं ग्रहं माँ !'
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मक्काड़ों और डमरुओं के वज्रघोष पराकाष्ठा पर पहुँचे । धरती विदीर्ण होने लगी । आकाश फटने लगा । महाऋत्विक के संकेत पर अगल-बगल खड़े वधिकों की नग्न तलवारें बिजलियों की तरह कौंध कर बलि-पुरुष के मस्तक पर सन-सनाने लगीं ।
'हठात् ब्रह्माण्डों को हिल्लोलित करता हुआ एक घनघोर विप्लवकारी विस्फोट हुआ । वधस्थल के ठीक पीछे बलि-वेदी फट पड़ी ।' रुद्र हुंकार करती भगवती महाकाली साक्षात् प्रकट हो कर, बलिदान - शिला पर आरूढ़ हो गईं। कई
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