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. वाजितों, शंखों, नक्काड़ों का घोष चण्ड से चण्डतर होता दिग्गजों को दहला रहा है । हीरों से जगमगाती हंस-धवल पालकी में, नग्न खड़ग के समान austrमान बलि-पुरुष को चण्डी - मण्डप में लाया गया है। उज्जयिनी के दुर्दण्ड मल्ल भी उसकी निश्चल काया को मोड़ कर उसे बैठाने में समर्थ नहीं हो सके हैं । बलिदान के मुहूर्त में कायोत्सर्ग मुद्रा ही तो बलि-पुरुष का एकमात्र आसन हो सकता है । इसी से महाश्रमण का कायोत्सर्ग आज हिमवान की तरह अनम्य हो उठा है ।
देख रहा हूँ : चण्डी-मण्डप के विशाल वितान तले, मालव- जनपद की सहस्रों मानव मेदिनी भय-विव्हल कण्ठ से अविराम जयजयकार कर रही है :
'महिषासुर मर्दिनी, शुंभ-निशुंभ संहारिणी, भगवती महाकाली जयवन्त हों । महामहेश्वर, रुद्र-प्रलयंकर भगवान महाकाल जयवन्त हों जयवन्त हों जयवन्त हों ।'
ठीक मन्दिर हार के सम्मुख लाल- माटी से आलेपित प्रशस्त मंडलाकार बलिवेदी बनी है । उसके चारों ओर कई पंक्तिबद्ध हवन कुण्ड धधक रहे हैं। ऋत्विक के मंत्रोच्चारों के साथ सहस्रों याजनिक उनमें नाना सुगन्धित हव्यों की आहुतियाँ दे रहे हैं । बलिवेदी के ठीक केन्द्रस्थल में विशेष रूप से काट कर लायी गई विन्ध्याचल की एक ऊँची चट्टान आरोपित है। उसके शीर्ष को फूलों से आच्छादित किया गया है । चट्टान को वर्तुलाकार घेर कर कई भयंकर आकृति वाले भैरव और कापालिक खड़े हैं । उनके प्रचण्ड कज्जल - लेपित शरीर सिन्दूरी त्रिशुलों से चित्रित हैं । वे परिघ, मुशल, पाश, परशु, त्रिशूल आदि विविध शस्त्र धारण किये हैं । ठीक चट्टान के अगल-बगल दो प्रमुख वधिक बिजलियों से चमचमाते नग्न खड्ग ताने खड़े हैं । गले में वे मुण्ड - मालाएँ धारण किये हैं ।
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ठीक बलिवेदी के सम्मुख, विशाल मानव समुद्र के बीच एक सब से ऊँचे तख्ते पर बिछा है अवन्तीनाथ का सुवर्ण - रत्निम सिंहासन । उसमें चण्डप्रद्योत अपनी महारानी शिवादेवी के साथ, मर्कत- मुक्ता की झालरों से सुशोभित सफेद चंदोवे तले ईशत् मन्द मुस्कान के साथ आरूढ़ हैं । प्रतिहारियाँ उन पर चँवर ढोल रही हैं । पर यह क्या हो गया है महारानी शिवा को, कि उनकी देह शव की तरह श्वेत और जड़ित हो गई है । उनकी आँखें पथरा गई हैं।
'सहसा ही 'जय महाचण्डिके, जय महाकाली, कराली, करवाली, मुण्डमालिनी की तुमुल चीत्कारें और हुँकारें गूंज उठीं। उसके साथ ही कई कापालिकों के हाथ खड़गासन बलि-पुरुष को पालकी में से उठाने के लिये बढ़े । किन्तु उस नरोत्तम ने दोनों हाथ उठा कर उन्हें रोक दिया । ' और पलक मारते में वह एक ही छलांग में स्वयम् ही, यथावत् खड़गासन मुद्रा में, मारण- शिला पर आ खड़ा हुआ । विस्मय की एक विराट निस्तब्धता व्याप गई। ऐसा तो पहले कभी हुआ
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