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________________ १६८ . वाजितों, शंखों, नक्काड़ों का घोष चण्ड से चण्डतर होता दिग्गजों को दहला रहा है । हीरों से जगमगाती हंस-धवल पालकी में, नग्न खड़ग के समान austrमान बलि-पुरुष को चण्डी - मण्डप में लाया गया है। उज्जयिनी के दुर्दण्ड मल्ल भी उसकी निश्चल काया को मोड़ कर उसे बैठाने में समर्थ नहीं हो सके हैं । बलिदान के मुहूर्त में कायोत्सर्ग मुद्रा ही तो बलि-पुरुष का एकमात्र आसन हो सकता है । इसी से महाश्रमण का कायोत्सर्ग आज हिमवान की तरह अनम्य हो उठा है । देख रहा हूँ : चण्डी-मण्डप के विशाल वितान तले, मालव- जनपद की सहस्रों मानव मेदिनी भय-विव्हल कण्ठ से अविराम जयजयकार कर रही है : 'महिषासुर मर्दिनी, शुंभ-निशुंभ संहारिणी, भगवती महाकाली जयवन्त हों । महामहेश्वर, रुद्र-प्रलयंकर भगवान महाकाल जयवन्त हों जयवन्त हों जयवन्त हों ।' ठीक मन्दिर हार के सम्मुख लाल- माटी से आलेपित प्रशस्त मंडलाकार बलिवेदी बनी है । उसके चारों ओर कई पंक्तिबद्ध हवन कुण्ड धधक रहे हैं। ऋत्विक के मंत्रोच्चारों के साथ सहस्रों याजनिक उनमें नाना सुगन्धित हव्यों की आहुतियाँ दे रहे हैं । बलिवेदी के ठीक केन्द्रस्थल में विशेष रूप से काट कर लायी गई विन्ध्याचल की एक ऊँची चट्टान आरोपित है। उसके शीर्ष को फूलों से आच्छादित किया गया है । चट्टान को वर्तुलाकार घेर कर कई भयंकर आकृति वाले भैरव और कापालिक खड़े हैं । उनके प्रचण्ड कज्जल - लेपित शरीर सिन्दूरी त्रिशुलों से चित्रित हैं । वे परिघ, मुशल, पाश, परशु, त्रिशूल आदि विविध शस्त्र धारण किये हैं । ठीक चट्टान के अगल-बगल दो प्रमुख वधिक बिजलियों से चमचमाते नग्न खड्ग ताने खड़े हैं । गले में वे मुण्ड - मालाएँ धारण किये हैं । ' ठीक बलिवेदी के सम्मुख, विशाल मानव समुद्र के बीच एक सब से ऊँचे तख्ते पर बिछा है अवन्तीनाथ का सुवर्ण - रत्निम सिंहासन । उसमें चण्डप्रद्योत अपनी महारानी शिवादेवी के साथ, मर्कत- मुक्ता की झालरों से सुशोभित सफेद चंदोवे तले ईशत् मन्द मुस्कान के साथ आरूढ़ हैं । प्रतिहारियाँ उन पर चँवर ढोल रही हैं । पर यह क्या हो गया है महारानी शिवा को, कि उनकी देह शव की तरह श्वेत और जड़ित हो गई है । उनकी आँखें पथरा गई हैं। 'सहसा ही 'जय महाचण्डिके, जय महाकाली, कराली, करवाली, मुण्डमालिनी की तुमुल चीत्कारें और हुँकारें गूंज उठीं। उसके साथ ही कई कापालिकों के हाथ खड़गासन बलि-पुरुष को पालकी में से उठाने के लिये बढ़े । किन्तु उस नरोत्तम ने दोनों हाथ उठा कर उन्हें रोक दिया । ' और पलक मारते में वह एक ही छलांग में स्वयम् ही, यथावत् खड़गासन मुद्रा में, मारण- शिला पर आ खड़ा हुआ । विस्मय की एक विराट निस्तब्धता व्याप गई। ऐसा तो पहले कभी हुआ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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