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· · क्षिप्रा के पर पार बहुत दूर, अवन्तीनाथ चण्डप्रद्योत के विपुल ऐश्वर्य से जगमगाते हुए राजमहालय जाने क्या देख कर स्तंभित हैं। उनकी आकाशगामी चूड़ाओं के रत्नदीप चौकन्ने हो उठे हैं। · · कल प्रातःकाल ही, नरबलि का मुहूर्त है, पर अभीष्ट बलि-पुरुष का दिशान्तों तक पता नहीं है। सारे आश्वारोही पृथ्वी के छोरों तक जा कर निराश लौट आये हैं। और अब अवन्ती के महा सेनापति, महामात्य और कोटिभट योद्धा स्वयम् चंडीयज्ञ के आखेट नरोत्तम की खोज में, अँधियारों की तहें उलट रहे हैं। इससे पूर्व बलि-पुरुष कभी इतना दुर्लभ न हुआ। इस बार शून्य की चट्टान सामने आ खड़ी हुई है।
· · 'उज्जयिनी के महायाजक कहते हैं, कि यदि मुहूर्त टल गया तो अवन्ती का सिंहासन भूसात् हो जायेगा। उसकी रक्षा का अन्तिम उपाय होगा केवल यह, कि स्वयम् अवन्तीनाथ · · 'बलिवेदी पर · · ·? कल्पना मात्र से चण्डप्रद्योत एक साँस में सौ बार मरण की काली बहिया में गोते खा रहा है। रत्नों और फूलों से लदी राजशैया शृंगारित अर्थी-सी थरथरा रही है। महारानी शिवादेवी शव के पैरों जैसे ठंडे अपने पतिदेव के चरणतलों में माथा ढाल कर, अनवरत बहते आँसुओं से उन्हें गरमा रही हैं, और सिसकियाँ भर रही हैं। • • •
'शान्तम्, शान्तम् शिवा, चण्डप्रद्योत ! बलि-पुरुष स्वयम् ही आ गया है। मुहुर्त से पहले ही तुम्हारा नरमेध संपन्न हो चुकेगा। जिस मृत्यु और स्मशान से तुम इतने भयभीत हो, तुम्हारी वर्तमान सुख-शैया और सिंहासन उसी में बिछे हैं : वहीं पड़े हैं उनके पाये। तुम्हारे उस स्मशान को अपनी छाती पर धारण किये खड़ा हूँ। मुझे पहचान सको, तो कल के यज्ञ-मुहूर्त में, तुम्हारी शैया, और तुम्हारा सिंहासन, शाश्वत जीवन की भूमि पर आरूढ़ हो सकते हैं।'
· · 'देख रहा हूँ, उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर का गर्भगृह। काल की चंचल धारा पर, अनादिकाल से अविचल अधिष्ठित है यह स्वयम्भू ज्योतिर्लिंग। यह किसी मर्त्य मानव-शिल्पी की कृति नहीं : स्वयम् सृष्टि के महाशिल्पी ने इसके भीतर अपने आपको पिण्डीकृत किया है, रूपायित होना स्वीकारा है। लिंग, जो सृष्टि के जीवन का स्रोतोमूल और मृत्यु एक साथ है, उसी के रूप में प्रकट होना, यहाँ स्वयम् अमृतेश्वर ने अंगीकार किया है। मर्त्य पृथ्वी की कामेश्वरी योनि को भेद कर, वे यहाँ उत्तिष्ठित हैं। जीवन के संवाहक मरण-धर्मा काल को उन्होंने अपने मस्तक पर महासर्प के फणामण्डल के रूप में धारण किया है। चिर प्रवाही विशुद्ध काल-तत्व यहाँ
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