________________
महाकालेश्वर के अंगूठे तले स्तंभित है। देवाधिदेव योगीश्वर शंकर आज अपने ही इस पिंडीकृत लिंग पर आरूढ़ हो कर, अपूर्व प्रसन्न मुद्रा से मुस्कुरा
क्षिप्रा तट के केतकी और मालती कुंजों के सारे ही फूल पूजा बन कर धूर्जटी को चारों ओर से आवरित किये हैं। मध्य रात्रि के गभीर सन्नाटे में, छत में टॅगे रत्न-कुम्भ में से रह-रह कर लिंग पर टपकते जलबिन्दु का 'टप · · 'टप' शब्द स्पष्ट सुनाई पड़ता है। धूपायनों से उठ रही दशांग धूप की अगरु-कपूरी गंध। उससे सुवासित गर्भालय की दीवारें गलगल कर, धूम्र-लहरों में असंप्रज्ञात गहरावों के अलिन्द खोल रही है । एकाकी सुवर्ण दीप की अखण्ड जोत उस स्तब्धता में अनहद नाद को साकार कर रही है। कोने के सहस्र-जोत दीपाधार में नानारंगी मणियों की आभाएँ प्रतिपल नव्य-नूतन आकृतियाँ रच रही हैं। सृष्टि सारे लीला-खेल उनमें एक बारगी ही तरंगित हैं ।
__.. 'स्थाणु रुद्र अभी-अभी अतिमुक्तक स्मशान से लौट कर मन्दिर में आया है। वह ज्योतिलिंग के योनि-मुख पर मस्तक ढाले साष्टांग प्रणिपात में जाने कितनी देर से निश्चल लेटा है। मन ही मन उसके ओठों से प्रार्थना कर रही है :
'हे त्रिलोक और त्रिकाल के अधीश्वर, देवों के देव, ईश्वरों के ईश्वर, परम परमेश्वर, महेश्वर, पृथ्वियों की पृथ्वी, आकाशों के आकाश, ? महामण्डलाकार शून्यों के एकमात्र कैवल्य-विहारी, एकलचारी विराट् पुरुष, भगवान महाकालेश्वर, सुनें। · 'यह कौन दिगम्बर पुरुष तुम्हारा प्रतिस्पर्धी हो कर आज तुम्हारी लीला भूमि अतिमुक्तक स्मशान में आ खड़ा हुआ है ? मर्त्य मानव-पुत्र का ऐसा दुःसाहस, कि वह स्वयम् मृत्युंजय महाकालेश्वर की सत्ता को चुनौती दे रहा है !
'- 'मैं और कोई नहीं भगवन्, आपका परम कृपापात्र और प्रियपात्र सेवक स्थाणु रुद्र हूँ। मैं स्वयम् उसके सम्मुख गया। मैंने उसे ललकारा। अरे आप के ही अंगीभूत मैंने, स्वयम् शंकर ने, उसे सम्बोधन किया। पर वह उद्धत आपकी प्रलयंकरी दहाड़ सुन कर भी टस से मस न हुआ । अविकम्प, सुधीर, धृतिमान साक्षात् मन्दराचल की तरह निर्भय और निश्चल रहा। मेरी ओर आँख उठा कर भी उसने नहीं देखा। पृथ्वी में ऐसा कोई पौरुष आज तक नहीं जन्मा, जो उस भयंकर भैरव स्मशान में यों आधी रात विचरण कर सके, और स्वयम् महाकाल की गर्जना सुन कर भी जो अविचल रह सके।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org