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________________ १५५ 'अरे यह कौन इन्द्रजाली है, जिसने मुझ से ऊपर अपनी सत्ता का सिंहासन बिछाया है । अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाला यह कौन दुरात्मा देव मेरे मस्तक पर बैठ कर निर्लज्जता से विलास कर रहा है ! ' असुरेन्द्र के सामानिक देवों ने मस्तक पर अंजुलि धारण कर नम्र निवेदन किया : 'हे स्वामी, ये महापराक्रमी और प्रचण्ड सत्ताधारी सौधर्म कल्प के शन्द्र '' चमरेन्द्र भभक उठा। भृकुटियाँ तान कर नथुनों से फुंफकारते हुए वह बोला : 'ओ अज्ञानी असुर देवो, मेरे प्रताप को तुम नहीं जानते, इसी से अपने स्वामी के सम्मुख तुम मेरी चरण-धूलि के एक कण जैसे तुच्छ इस शक्रेन्द्र की प्रशंसा कर रहे हो। तुम देखोगे कि मैं इसे अपनी एक साँस से पिस्सू की तरह नष्ट कर दूंगा । मेरे होते, ऐसे कीट-पतंगे देवों की जगती पर शासन करेंगे ?' चमरेन्द्र के सेवक सामानिक देवों ने बहुत अनुनयपूर्वक फिर चमर को समझाया : 'स्वामिन्, पूर्वोपार्जित पुण्य से ये शक्रेन्द्र सौधर्म पति हुए हैं । महासत्ता की व्यवस्था में उनकी समृद्धि और पराक्रम, असुरेश्वर चमरेन्द्र से कई गुना अधिक है । पर अपनी जगह आप भी तो कम नहीं, हमारे जैसे सहस्रों असुरों के राजराजेश्वर हैं । पूर्व कर्मोपार्जित पराये वैभव की ईर्ष्या करने से क्या लाभ ? हमारी सेवाओं से सन्तुष्ट रह कर अपने स्वार्जित ऐश्वर्य और सत्ता का आप निश्चिन्त उपभोग करें, इसी में आपका कुशल-मंगल है ।' अपने ही अधीनों के इस प्रतिबोध ने चमरेन्द्र की ईर्ष्या को ज्वाला - गिरि की तरह वन्हिमान कर दिया । वह चीत्कार उठा : 'ओ हततेज नपुंसको, हट जाओ मेरी आँखों के सामने से । मुझे तुम्हारी सहाय की ज़रूरत नहीं । अपने इस प्रतीन्द्र का ध्वंस करने को मैं अकेला ही काफी हूँ । आज के बाद सुर और असुर राज्य का भेद समाप्त हो जायेगा । इन दो लोकों के अब दो इन्द्र नहीं, एक ही इन्द्र होगा । वह एकमेव इन्द्रेश्वर मैं हूँगा, और प्रतिस्पर्द्धाहीन मैं अखण्ड देव-साम्राज्य पर शासन करूँगा ।' तत्काल आकाश मार्ग से उड़ कर कल्प स्वर्गों पर आक्रमण करने को उद्यत चमरेन्द्र, हवा पर तमाचे मारता हुआ, अपनी आयुधशाला की ओर धावमान हुआ । उसके मस्तिष्क की फटती नसों में विवेक की एक चिनगारी फूटी : 'मेरे मातहत ये सहस्रों असुर देव, मेरे शत्रु नहीं, सेवक ही तो हैं । मेरी हितेच्छा से प्रेरित जान पड़ता है इनका भाव । 'शायद 'शायद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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