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________________ तद्रूप भव, मद्रूप भव, आत्मन् सुंसुमारपुर आया हूँ । यहाँ के आशोकखंड उद्यान में अशोक वृक्ष तले एक शिला - तल्प पर बैठा हूँ । जो प्रस्तुत है, उसे बस देख रहा हूँ । वस्तु अपनी जगह पर है, होती रहती है : मैं अपनी जगह पर हूँ, होता रहता हूँ । उस और मेरे बीच है केवल दर्शन । शुद्ध, अविकल्प, अकम्प दर्शन | यह दर्शन अब ऐसा अस्खलित और धारावाहिक हो गया है, कि चिन्तन अनावश्यक हो गया है। 'पहले भी सोचना मेरे स्वभाव में नहीं रहा : बचपन से ही अपने को केवल देखते पाया है । लगा है कि सोचना, सम्पूर्ण देखने के आनंद में बाधक होता है । सोच हमारे और वस्तु के बीच आवरण पैदा करता है । उसमें अहम् और राग अनिवार्य है । इसी से सोचना मिथ्या दर्शन है : केवल देखना सम्यक् दर्शन है । अखण्ड भाव से देखना ही एक मात्र शुद्ध वस्तुस्थिति है । • सो सतत देखता रहता हूँ। और यह एकाग्र दर्शन की तन्मयता ही, अनायास जाने कब ध्यान हो जाती है । आँखें मैं मीचता नहीं, जाने कब वे आप ही मिच जाती हैं : अर्धोन्मीलित हो जाती हैं । 'अशोक का एक रातुल फूल माथे पर टपका । फिर सामने आ गिरा । भ्रूमध्य में विद्युत् का तीव्र प्रकर्षण अनुभव हुआ । अशोक फूल की ललित लाली में, आरक्त ज्वालाएँ उठने लगीं । भीतर एक दूरातिदूर छोर पर कोई आकाशी खिड़की -सी खुल पड़ी। दृश्यों और ध्वनियों का एक प्रवाह उसमें उफन रहा है । उसमें एक तरंग उठी और व्याप कर कई पलों वाले असुर लोक में रूपान्तरित हो गई । 'देख रहा हूँ, असुर-राज्य की अमरचंचा नगरी । असुरेश्वर चमरेन्द्र इसी क्षण अपनी उपपाद शैया में जन्म ले कर, अपनी देवसभा के सिंहासन पर आरूढ़ हो गया है। शक्ति के मद में चूर, उसने भ्रू उचका कर अपने अवधिज्ञान के वातायन से ऊपर-नीचे चारों ओर निहारा । ऊर्ध्व दृष्टिपात करने पर उसे दिखाई पड़ा सौधर्मेन्द्र । अपने सौधर्मावतंस विमान की सुधर्मा सभा में सहस्रों देव-परिकर से घिरे, महद्धक वज्रधारी शकेन्द्र का वैभव और प्रताप देख कर वह गर्जना कर उठा : 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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