SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ देवयोग से कभी · · 'मेरी · · 'पराजय हो जाये, तो इस शक्रेन्द्र से अधिक पराक्रमी ऐसी कौन सत्ता हो सकती है, जिसकी शरण में जा सकं . . ?' · · 'चमरेन्द्र के अवधिज्ञान की एक और उच्चतर प्रकाश-श्रेणि उसके भीतर झलक उठी। और अनति दूर, अनति पास, उसे एक भव्य दृश्य दिखाई पड़ गया है। · · संसुमारपुर के अशोक वन में चरम तीर्थंकर महावीर अपनी छद्मस्थ अवस्था में महातप के हिमाचल की तरह, अपनी कायोत्सर्ग मुद्रा में अटल हैं । वह, जिसके अंगुष्ठ पर, जगत के सारे सत्ताधीशों का मान मर्दन हो जाता है ! जिसके चरण विलोक के सारे अधीश्वरों की चडामणि से चम्बित हैं। · · 'जिनके चरणों में स्वर्ग शरण खोजते हैं ! आश्वस्त हुआ चमरेन्द्र । और अपनी आयधशाला में से अपना वज्रपाणि नामा मुद्गर उठा कर, आकाश के मण्डलों को उसके अघातों से कम्पित करता हुआ, वह चमरेन्द्र, विपल मात्र में मेरे सम्मुख आ उपस्थित हआ है। परिघ आयुध को दूर रख, तीन प्रदक्षिणा दे, नमन कर वह बोला : 'भगवन्, अचूक है मेरी यह प्रतीति, कि मैं इन श्रीचरणों की कृपा से उस दुर्जय, दुर्मत्त शक्रेन्द्र को लीला मात्र में जीत लंगा। जब तक वह मेरे मस्तक पर बैठा है, तब तक मेरे चित्त को चैन नहीं, नाथ ! मेरा यह मनोकाम्य पूरा करो, और मेरी इस असह्य पीड़ा को हरो, स्वामी । तुम्हारे सिवाय ऐसे कप्टी को और कहाँ शरण - - ‘अवलोक रहा हूँ, अवबोध रहा हूँ, इसकी वेदना के बीहड़ों को। इसके कष्टों के सर्पिल आलजालों को । · · ·इससे पूर्वभव में इस आत्मा ने, अगले भव में अप्रतिम सत्ता, महत्ता पाने की लालसा से घोर अज्ञानी तप किया था । बलात्कारी देह-दमन और अन्तहीन भुखमरी के साथ सन्थारा करके इसने स्वेच्छतया मृत्य का वरण किया था । ज्ञानी का भोग भी मोक्षदायक होता है, किन्तु अज्ञानी का अहंकार मे आर्त, रौद्र तप मन चाहा फल प्रदान करके भी, चेतना में नित नये पापों, सन्तापों, कपायों के अन्तहीन नरक खोल देता है । ' . 'चमरेन्द्र, तेरे इन सारे नरकों की ज्वालाओं को सहँगा मैं, यदि तू जाग सके · · । बुज्झह ... • · बुज्झह · · बुज्झह, आत्मन् ।' · · 'कितना ही बड़ा पापी क्यों न हो, आत्म-समर्पण के साथ प्रार्थी होने पर वह माहेश्वरी सत्ता का अनुगृह प्राप्त कर लेता है । · · 'जानता हूँ, तू नहीं सुन रहा है इस क्षण प्रतिबोध की वाणी । तेरी मान कपाय इस समय घटस्फोट की अनी पर पहुँच चुकी है। अक्षम पात्र आप ही फट पड़ेगा, उसके बाद तू, चमरेन्द्र, तू अपने आमने-सामने होगा । स्वयम अपनी शरणागत । अन्य कोई किसी को शरण नहीं दे सकता, असुर। · · 'जा, अपनी सामर्थ्य की मीमा देख ले । कल्याणमस्तु । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy