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________________ १३३ कनखजूरे और केंकड़े जाने कहाँ से आ कर मेरे शरीर के चप्पे-चप्पे से चिपट गये हैं । अपने बेशुमार हाथ-पैरों से इन्होंने मेरे देह-पिण्ड के हर प्रदेश को जैसे कई-कई सँडासियों से जकड़ कर असह्य वेदना उत्पन्न की है। ऐसे कस कर ये जड़ित हो गये हैं मेरे अंग-प्रत्यंगों से, कि जान पड़ता है, मेरे शरीर में अलग इनका और कोई अस्तित्व ही नहीं है। जैसे ये मेरी काया में से ही फूटी, उसकी स्वाभाविक रोमालियाँ हैं। लोमहर्षण हो रहा है, बेशक इस संत्रास से, पर अपने ही लोमज इन जन्तुओं को क्या अपने तन से उखाड़ा जा सकता है, अलग किया जा सकता है ? यदि इस तन को स्वीकारा है, तो इसके इन जायों को कैसे नकारूँ। · · 'बल्कि देख रहा हूँ, कि मेरे हर अवयव में इन जीवधारियों ने परस्पर गुंथ कर कोई अद्भुत शिल्प रचना कर दी है। जैसे युग-युगान्तरों के आरपार चल रही काल की तमाम लीलाएँ किसी आदिम चट्टान पर एक बारगी ही उत्कीणित हो गई हैं । सत्ता के इस समग्र सौन्दर्य को अपने ही भीतर से प्रकट होते देख रहा हूँ, तो इसे अस्वीकारने की धृष्टता कैसे कर सकता हूँ ? · ·और अनायास पाया कि ध्यान में एक और भी उच्चतर चेतना-श्रेणी पर आरूढ़ हो कर स्तब्ध हो गया हूँ। · · 'किन्तु अगले ही क्षण , यह कैसी नीलीहरी लहरें मेरे रक्त को विक्षुब्ध कर उठी हैं। कोई अन्तहीन कटीला तार मानों मेरी पगतलियों की शिराओं में बिद्ध हो कर, मेरे समूचे स्नायु-मंडल में व्यापता हुआ, मेरी सहस्रों नाड़ियों के शाखा-जालों को आर-पार भेदता हुआ, मेरे हृदय की केन्द्रीय धमनी में कुण्डीकृत हो रहा है । दैहिक वेदना इतनी कुंचित और विषम भी हो सकती है, इसकी तो कभी कल्पना भी न की थी। उसके हर सम्भव प्रकार को भोगे और जाने बिना महावीर की आत्मा को चैन नहीं है । सम्पूर्ण उसे जाने बिना, सम्पूर्ण कैसे जीता जा सकता है । · · ‘देख रहा हूँ मेरे तन-पुद्गलों के स्कन्ध इन डंखों से छिन्न हुए जा रहे हैं और शरीर और अधिक साथ देने को तैयार नहीं। किस पुद्गल शक्ति ने प्राणवेध की यह गुथीली वेदना उत्पन्न की है ? ध्यान की ऊर्ध्वगामी श्रेणि से नीचे अवरूढ़ होने को विवश हुआ। · · 'ओह, बिच्छुओं का एक अपरम्पार जंगल ! बिच्छुओं की नदियाँ, बिच्छुओं के ऐसे विपुल पेड़, जिनकी हर डाल-डाल पत्तीपत्ती बिच्छू है । मूल से चल तक और सारी परिधि में केवल दंशाकुल बिच्छुओं की एक अन्तहीन पृथ्वी । वे मंडलाकार चकराते हुए, डंख मारते हुए मेरे शरीर के समस्त परमाणु-मंडल में व्याप्त हो गये हैं। अपने ही रक्त की बूंद-बूंद बिच्छू हो कर अपनी कँटीली पंछ से अपने ही को दंश कर रही है। __ • • सहसा ही माँस बन्द हो कर, हृदय-देश के अनाहत चक्र में लय पा गई । एक आदिम माँकल जैसे अचानक एक ही झटके में टूट गई। उसकी कड़ियाँ मोम-सी गल-गल कर बिखर गई। कहाँ गई वह बिछुओं की अनन्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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