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________________ १३२ हो सकता हूँ इनका। क्योंकि चलनी हो गये शरीर में इन्होंने नई हवा के झरोखे खोल दिये हैं। और इस संजीवनी प्राणवायु के संचार से मेरी चेतना सुषुम्ना की गहरी सुखद शैया में तन्द्रालीन-सी हो गई है। . . . खुले वातायनों की सुगन्धित वायु से आकृष्ट हो कर, चारों ओर की गन्दी हवा से निपजे डाँस भी मेरे भीतर मक्त साँस लेने को चले आये। अपने प्राण में व्याप्त कलुष को बाहर उड़ेल देने को वे अकुला उठे हैं। हर जीव की क्षुधा, तृषा, वासना आखिर तो मुक्ति पाने की एक छटपटाहट ही है न ? सो वे डाँस अपनी रक्त-पिपासा से व्याकुल हो कर मेरी रक्त-शिराओं को कस कर चूसने-चूमने लगे। उनके दाहक चुम्बनों से मेरी योग-तंद्रा भंग हो गई । मैंने अपने टीसते शरीर की ओर दृष्टिपात किया : उसकी वेदना को संवेदित किया। · · · लगा कि निपट गाय हो गया हूँ। और अपने धावन के लिये विकल बच्चों को तृप्त करने के लिये मेरे रोंये-रोंये में स्तन फूट आये हैं, और वे दूध से उमड़ते हुए उन नन्हें डाँसों के मुख में अनवरत बह रहे हैं। · · · अपनी इस रक्तस्नात देह को देखकर, इन्द्रों के द्वारा क्षीर-समुद्र के जल से अभिषिक्त, सुमेरुगिरि की पांडुक-शिला पर विराजमान तीर्थंकर-शिशु की दुग्ध-स्नात छबि आँखों में झलक उठी है। उस शिशु के लिये आज प्राणि मात्र की कामधेनु बनने के सिवाय और चारा ही क्या है ? कैसा ही कष्ट-संत्रास क्यों न हो, वह मेरी नियति को सिद्ध करने के लिये ही तो है। __ स्वजन, शैया और घर का त्याग किये दस बरस हो गये हैं। इन बरसों में धरती और आकाश तक के अवलम्ब को अस्वीकारते ही बना है। अपनी धरती और अपना आकाश स्वयम् ही हो जाने को विवश हुआ हूँ। इसी कारण, सहना ही मेरा स्वभाव हो गया है। वेदना भी वल्लभा-सी ही प्रिय लगती है। एक मात्र कष्ट ही तो प्रतिपल का संगी हो गया है। शत्र बन कर वह आया था और मित्र बन कर रह गया है। किन्तु पीड़ा देना उसका स्वभाव है, सो उसे स्वीकारे बिना निस्तार नहीं। मानुष तनधारी हो कर, पीड़ा से परे होने का दम्भ कैसे कर सकता हूँ। लेकिन निरन्तर आक्रान्तियों और विपत्तियों में जीने के कारण पीड़ा को अणु-प्रतिअणु देखना सीख गया हूँ । सम्पूर्ण संचेतना के साथ उसे सहता हूँ, देखता हूँ, तो पराकाष्ठा पर पहुँच कर उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है । हुआ यह है कि चीज़ों को देखने की दष्टि ही इस बीच बदल गई है। खण्ड पर रुक नहीं पाता हूँ, तो अखण्ड का सामना हुए बिना नहीं रहता ।। · · 'स्थिरता भीतर अधिकाधिक घनीभूत हो रही है । · · 'अरे यह क्या हुआ कि इस घनत्व में जाने कैसे कसीले चिपकाव का अहसास हो रहा है । किसी पकड़ का एक बहुमुखी पंजा सारे शरीर को जकड़े ले रहा है। ओह, हजारों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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