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________________ १३१ तभी प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्नि के समान, घनघोर मेघनाद करती हुई, एक रौद्र आकृति सामने धंस आती दिखाई पड़ी। अपनी बाहुओं और जाँघों पर आघात करते उसके उद्दण्ड पंजों पर जैसे ग्रह-मंडल थरथरा रहे हैं। सहसा ही उन पंजों ने अन्तरिक्ष को विदीर्ण कर दिया। एक बारगी ही असंख्यों रात्रियों के पुंजीभूत अन्धकार जैसी रज धारासार मुझ पर बरसने लगी है। . . . फिर पंच-तत्वों के स्कन्धों से आबद्ध हो गया है मेरा शरीर । मेरी निपट मानुष देह के सारे द्वार इस अन्तहीन रज-वर्षा से अवरुद्ध हो गये हैं। श्वासों में ऐसी घुटन है कि प्राण छूटने की अनी पर पहुँच गये हैं। रोम-रोम पिसे हुए काले काँचों की इस धूलि से विदीर्ण हो रहे हैं। ओ मेरे शरीर, तू व्याकुल न हो : तेरी वेदना मेरे ही कारण तो है। मैं जो प्राण हूँ, आघात ओर संवेदन को अनुभूति करने को क्षमता रखता हूँ। • • मैं सह रहा हूँ तेरे सारे संत्रासों को : कि पराकाष्टा तक इन्हें सहकर, हो सके तो तुझे भी सदा को आघात्य कर दूं। क्योंकि अन्तत: मैं अवध्य हूँ, और कष्टग्राही प्राणचेतना से उत्तीर्ण हो कर अपने स्वभावगत अमृत में आत्मस्थ हो सकता हूँ। सारे आघातों को सह कर, हो सके तो अपने चिदामृत से तुझे भी अभिसिंचित कर देना चाहता हूँ। · · 'उस समस्त रज को निःशेष अपने में धारण कर मैंने श्वास रोध कर दिया। मेरे निस्पन्द, अनाहत शरीर पर हो रही रजोवर्षा सहसा ही स्तंभित हो गयी । भीतर जाने कितने ही अनादिकालीन कर्मों के भूभृत चूर-चूर हो कर, मेरे आज्ञाचक्र में उठ रही ज्ञानाग्नि में भस्मीभूत हो गये। मेरे भीतर की शिलीभूत रज ने ही तो बिखर कर, चारों ओर से फिर मुझ पर अन्तिम आक्रमण किया था। इस लिये कि वह रह ही न जाये, समाप्त हो जाये । · · · और औचक ही देख रहा हूँ, अस्ताचल के सारे माया-पटलों को छिन्न-भिन्न कर, नवीन चन्द्रमा की तरह अपने ही भीतर के शाश्वत उदयाचल पर शीर्षारूढ़ हो गया हूँ । . : 'ओह, यह क्या हुआ कि मेरा आचूड़ शरीर असंख्य लाल चीटियों से आच्छादित हो गया है। मेरे पोर-पोर को ये अपने मुखाग्र के अनीले दंशों से इस तरह बींध रही हैं, जैसे बेशुमार सुइयो किसी वस्त्र को सीती हुई आरपार हो रही हैं। क्या मेरी नग्न काया पर इन नन्हीं प्राण-बालिकाओं को दया आ गई है, कि अपनी मुख-सूचियों से ये मेरे तन पर सदा के लिये कोई वस्त्र बुन कर मी देना चाहती है। जो साधन इनके पास है, उसी से तो ये मेरी तन-रक्षा का जतन कर रही हैं। पीड़ा चाहे जितनी ही क्यों न हो, इन अज्ञानिनी बालिकाओं के इस घनीभूत प्यार को सहे बिना निस्तार कहाँ है ? कृतज्ञ ही तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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