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________________ १३४ मण्डलाकार पृथ्वी ? कहीं कोई चिह्न उसका शेष नहीं है पदार्थ के जगत में। क्या वह मेरे भीतर से उठकर, मेरे ही भीतर विजित हो गई · · ·? प्रश्न के उत्तर में, किसी अतल में निर्वापित हो रहा, कि जहाँ एक अकथ स्वयंबोध के अतिरिक्त और कुछ भी शेष नहीं है। ___ . . 'इस अतल में से एकाएक यह कैसे एक तल का आविर्भाव हुआ है। अपने ही शरीर को एक सपाटी की तरह व्यापते देख रहा हूँ। और उस पर अनगिनती नकुल चारों ओर दौड़ते हुए कोलाहल कर रहे हैं। अपनी उग्र डाढ़ों से वे मेरी देह की धरती में कुदालियाँ-सी मार कर उसे फोड़ रहे हैं, तोड़ रहे हैं । मांस के टुकड़े कई आकारों में टूट-टूट कर, एक पत्थरों के मैदान की तरह छा गये हैं। उफ् कितने गहरे अँधेरे, काला खून बन कर मेरी मांसपेशियों में दबे हुए थे। कितने कल्मष मेरे पुद्गल-परमाणुओं में घातक चोरों की तरह छुपे हुए थे। कर्मों का आश्रव-राज्य कितना जटिल है, जान कर और अधिक सावधान और अप्रमत्त हो गया है। अपनी निर्मांस मत्ता की स्वाधीनता के निकटतर पहुँच कर मेरे आनन्द और आश्वासन की सीमा नहीं है। . . . - लेकिन नहीं, अभी विराम नहीं है। जान पड़ता है मंज़िल अभी बहुत दूर है। क्योंकि मेरे भूशायी मांस-खंडों की शिलाओं को फोड़ कर शत-सहस्र सर्प अपने फणों को क्षितिज तक विस्तारित करते हुए, एक पर एक यमराज के कई भयंकर भुज-दण्डों की तरह मुझ पर चारों ओर से टूट पड़े हैं। सर से पैर तक वे मेरे प्रत्येक अंग और अवयव से, इस तरह कुंडलियों पर कुंडलियाँ. मार कर लिपट गये हैं, जैसे किसी विशाल वृक्ष पर अमर बेलियों के आलजाल छा गये हों। अपने प्राण की समूची हिंसक वासना को चुका देने को बेचैन हो कर वे ऐसी उग्रता से अपने फन फटकार कर मुझ पर आघात कर रहे हैं, कि उनके फण-मंडल छिन्न-भिन्न हुए जा रहे हैं। ऐसी तीखी जिघांसा से वे अपनी कराल डाढ़ों द्वारा मेरी हड्डियों तक में दंश कर रहे हैं, कि उनके दाँतों का विष चुक गया है, और निःसत्व हो कर वे दाँत उखड़ कर उन्हीं के पेटालों की विषाग्नि में हवन हो रहे हैं। जब वे नितान्त निविष हो कर मेरे शरीर पर छूछी डोरियों जैसे लटके रह गये, तो नकुल उन्हें खींच-खींच कर खाने लगे। जाने कहाँ से निकल आये चूहों के दल के दल अपनी तीखी चोंचों से उन्हें कुतर-कुतर कर चींचारियाँ करने लगे। . . ___ . . 'हिंसा-प्रप्तिहिंसा का एक अन्तहीन दुश्चक्र मेरे अस्तित्व की परिक्रमा करता. दीखा । इस चक्र-व्यूह में घिर कर क्या प्राण-रक्षा का उपक्रम सम्भव है ? यों भी कभी वह तो किया नहीं। पर इस क्षण स्पष्ट प्रतीति हो रही है, कि मेरे प्राण बचाने के लिये नहीं, दे देने के लिये ही रचे गये हैं। लोक के प्राणि चिर काल से इस हिंसा-प्रतिहिंसा की साँकल में जड़े अपना ही घात करने में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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