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________________ १२५ से हहरा उठा है? वैशाली का दुर्गभेद, इन्हीं सुरंगों से सम्भव है। अन्य उपाय नहीं। • • 'विशाला के शंख गणराज, अपना समस्त परिवार और परिकर ले कर तुम किसकी वन्दना को आये हो ? यह नि म नग्न ज्वाला, अब पूजा-वन्दना से ऊब चुकी है। वह तुम्हारे समस्त की आहुति चाहती है। भिक्षुक की अंजुली समस्त वैशाली के वैभव का आहारदान चाहती है। लौट कर जब तक, संथागार में खबर दोगे, तुम्हारे अश्वारोही व्यर्थ ही दिशाओं को खूदेंगे। पकड़ में न आने वाली दिशाओं से अलग, वे दिगम्बर को अन्यत्र कहाँ खोजेंगे? · आगे बढ़ कर वाणिज्य ग्राम की मंडिकीका नदी के तट पर आ खड़ा हुआ हूँ। नदी चाहती है कि मैं उसे पार करूँ। कि मैं उसकी लहरों पर चलूं। चलने को उद्यत हुआ कि तभी देखता हूँ कि एक नाविक तट पर नाव लगा कर, प्रार्थी है कि उसकी नाव पर चढ़ कर नदी पार करूँ। तथास्तु । नाव पर पार के तट पर आ लगी है। मध्यान्ह के सूर्य से तपी रेत पर उतरा, कि नाविक ने हाथ फैला कर उतराई का मूल्य माँगा । भिक्षक के पास मूल्य कहाँ ? जलती बालू पर, वह अकिंचित्कर, निस्पन्द खड़ा रह गया है। कवट ने दोनों हाथ रेत में पसार कर उसके पैरों को घेर लिया है । मूल्य चकाये बिना भिक्षुक की निर्गति नहीं । भिक्षुक ने मयूर-पीछी से नाविक के तप्त बाल में गड़े माथे को थपथपा दिया। उसके कमंडलु से कुछ जल बिन्दु केवट के उघाड़े काले तन पर चू पड़े। ___ 'नाथ, तर गया । तारनहार को पार उतारने वाला मैं कौन ? भूल हो गयी, भन्ते, अज्ञानी को क्षमा करें।' 'कृतार्थ हुआ मैं, नाविक । भिक्षुक को तुमने अपनी भुजाओं पर अपने ही पार उतार कर उऋण किया है। तुम्हारा मूल्य कौन चुका सकता है ?' ‘पार तो मैं हुआ, नाथ, स्वयम् तारनहार की बाँहों में।' 'तथास्तु · · !' सानुयष्टिक ग्राम के पद्मश्री-उपवन में प्रवेश करते ही एक प्रबल विद्युत धारा से शिरा-शिरा ऊर्जायित हो उठी है। ध्यानस्थ होते ही देखा कि चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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