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________________ १२४ 'पर आपने तो किया, भन्ते ?' 'वह विधान नहीं । जो देखा, वही कहा। जहाँ तक देखा, वहाँ तक कहा ।' गोशालक चुपचाप बहुत दूर तक अनुसरण करता रहा । एक तिराहे पर,. श्रावस्ती का मार्ग मुड़ता था। वहीं अटक कर बोला : 'भन्ते, आज्ञा दें, श्रावस्ती जाऊँगा । तेजोलेश्या सिद्ध किये बिना चैन नहीं ।' श्रमण ने कोई उत्तर नहीं दिया । अटल भवितव्य - रेखा को देखते, वह अपने पथ पर एकाग्र आरूढ़ रहा । गोशालक श्रावस्ती की राह पर मुड़ गया । 'काल-प्रवाह में दूर पर देख रहा हूँ । 'तेजोलेश्या सिद्ध गोशालक, अनेक - ऋद्धि-सिद्धि से सम्पन्न हो कर, मूढ़ लोक-जनों को आतंकित करता हुआ, प्रभुता - प्रमत्त भाव से पृथ्वी पर विचरण कर रहा है। तीर्थंकर पार्श्व के छह शिष्यशोण, कलिंद, कार्णिकार, अच्छिद्र, अग्निवेशान तथा अर्जुन उसे श्रावस्ती में दैवात् मिल गये । उनसे अष्टांग निमित्तज्ञान सीख कर, संसारी मनुष्यों के भाग्य और भविष्य का निर्णय करता हुआ, वह सर्वत्र अपने को 'जिनेश्वर' उद्घोषित करता घूम रहा है । वह अपने को आजीविक परम्परा का चम तीर्थंकर कहता है, और अज्ञानी लोकजन उसके चरणों में प्रणत हो, उसका अनुसरण करते हैं । प्रभुता के प्यासे मंखलि गोशाल, पश्चात्ताप की ज्वालाओं के बीच एक दिन तेरा यह अहंकार भस्म हो कर सोहंकार हो जायेगा । आज तू प्रभुता के पीछे भाग रहा है । उस दिन प्रभुता स्वयम् तेरा वरण करेगी । एवमस्तु । जगत के सारे रास्ते क्या वैशाली ही जाते हैं ? फिर वैशाली के विश्व-विख्यात प्रमद - कानन 'महावन' के सुगन्ध-निविड़ अँधियारों में विचर रहा हूँ । वैशाली, तेरी उम्बेला के गोपन गुहादेश को भेद कर ही मेरा मार्ग जाता है। तेरे केलि-मग्न युवा-युवतियों के प्यालों की मदिरा सहसा ही आग हो उठी हैं । मूर्च्छित युगलों के आलिंगन एकाएक टूट गये हैं उनके सुरा-चषक हाथों से छूट कर फूट गये हैं । चिन्ता न करो, तुम्हारे द्राक्षावनों के अंगूरों में मैं ही आलोड़ित हूँ। मैं ही तुम्हारी सुराओं में विस्फोटित हो कर जल रहा हूँ । मैं ही तुम्हारा आलिंगन हूँ, युवाजनो, उससे छूट कर ही मुझे पहचानोगे ! : ओ, · · 'अपने भूशायी केशों को सँवारते हुए, आम्रपाली, तुम हठात् चौंक उठी हो। तुम्हारे कुन्तलों का तमालवन यह किसकी सत्यानाशी पगचाप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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