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‘यह कहाँ से आती है, भगवन् ? इसकी सिद्धि का कोई उपाय, भन्ते ?'
'यह सोद्देश्य सिद्धि नहीं । यह निरुद्देश्य, निर्विकल्प आत्मसिद्धि का स्वाभाविक परिणाम । योगी जब समत्व के सिंहासन पर आरूढ़ हो जाता है, तो कषायसन्तप्त जीवों के कल्याणार्थ यह स्वतः प्रकट होती है ।'
'तो यह शीतलेश्या, तेजोलेश्या का प्रतिकार है, भन्ते ?'
'योगी कषाय का प्रतिकार नहीं करता, समूल संहार करता है, समाहार करता है । प्रतिकार अहंकार में से आता है । योगी निरहंकार होता है ।'
'इसकी कोई विधि, भन्ते ? '
'सम्पूर्ण निविधि हो जाना ।'
'अब, भन्ते, ऐसा है कि निर्विधि को लेकर क्या करूँगा । वह तो जब होना होगा, आपोआप हो ही जाऊँगा, आपकी कृपा से । उसकी चिन्ता अभी से, और मैं क्यों करूँ ?'
'तो फिर तू श्रमण कैसा ?'
'महाश्रमण का शिष्य हूँ, तो श्रमण तो हूँ ही, भन्ते । सो आपके महाश्रम का प्रसाद तो मुझे आपोआप ही मिल जायेगा। फिर मुझे क्या चिन्ता ।'
'एवमस्तु ।'
'धन्य हैं, भन्ते । दीनानाथ ! '
'बुज्झह, बुज्झह, गोशाल । प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण गोशालक एक विद्युत धारा से झनझनाया - सा श्रमण की ओर ताकता
गया ।
सिद्धार्थपुर के मार्ग पर विहार करते हुए, एक स्थल को चीन्ह कर हठात् गोशालक बोला :
'हे स्वामी, आपके कहे अनुसार वह तिल का क्षुप तो उगा नहीं ।' 'उगा है, वह यहीं पर है ।'
गोशालक की दृष्टि तत्काल उस उगे हुए तिल-क्षुप पर पड़ गई। उसने उसकी फली को तोड़ कर उसे चीरा। उसमें ठीक तिल के सात दाने अंकुरित थे । वह आश्चर्य से स्तब्ध । क्षण भर सोच मग्न रह कर वह बुदबुदाया :
'शरीर का परावर्तन करके जीव फिर जहाँ के तहाँ उत्पन्न होते हैं ! ' 'जीव का कार्मिक परावर्तन, केवली -गम्य है, मानुष बुद्धि से उसका अन्तिम विधान सम्भव नहीं !'
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