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के नये ही पटलों में उत्क्रान्त हो रहा हूँ । देह, प्राण, इंद्रिय, मन पर अपना कोई अधिकार नहीं रह गया है। अन्तश्चेतना के केन्द्र में आसीन एक ज्योतिदेही सुन्दरी की गोद में उत्संसगित हो गया हूँ। योग की एक अपूर्वज्ञात मुद्रा में उसने मुझे उन्नीत किया है। . . .
• 'स्फुरित हुई भीतर एक भास्वर ध्वनि : भद्रा प्रतिमा। · · 'अपने को पूर्वाभिमुख, भद्रासन में उपस्थापित देख रहा हूँ। एक ही पुद्गल-परमाणु पर दृष्टि स्थिर हो गयी है। अपार पुद्गल द्रव्य की राशियाँ समुद्र की लहरों की तरह ज्वारित होती हुई, इस एकमेव लक्ष्य-बिन्दु में निर्वापित होती चली जा रही हैं। अन्नमय कोश सर्प के त्यक्त निर्मोक के समान, सामने झड़कर इसी एकमेव पुद्गलाणु में संविलीन हो गया है। एक पूरा दिन पूर्व दिशा में ही यह योग-यात्रा चलती रही । फिर उसी रात्रि को दक्षिणाभिमुख होने पर, दक्षिण दिशा का समस्त पुद्गल-विश्व धारासार इस एक मात्र पुद्गल-परमाणु की रक्तेश्वरी ज्योति में विलीयमान होता रहा । दूसरे दिन पश्चिमाभिमुख, और दूसरी रात्रि को उत्तराभिमुख भद्रासन में यही योग-क्रिया अविराम चलती रही।
भद्रा के समापन पर, भीतर के नाभि-कमल में एक विचित्र केशरिया ज्वाला अमृत-प्राशन के लिये उद्दीप्त दिखाई पड़ी । और उसके उत्तर में श्रीयोगिनी महाभद्रा ने मुझे अपने स्तन-मण्डल पर खींच लिया । यहाँ मेरी शिराशिरा में एक अद्भुत सौन्दर्य और यौवन रस का आप्लावन होने लगा। रहरह कर श्वेतेश्वरी और कृष्णेश्वरी ज्योतियाँ अपने आँचल में क्रमशः मुझे तपाती और नहलाती रहीं। चारों दिशाओं में क्रमशः चार अहोरात्र यह प्रक्रिया चलती रही। इक्षु, गेंहूँ, तीसी, सरसों के हरियाले, उजले, नीले, पीले खेत रोमालियों में लहराते दीखे : सारी देह नानारंगी फूल वनों, कमल वनों और फल वनों से नम्रीभूत हो आई : और मैं उससे अतिक्रान्त होता हुआ किसी अपूर्वजात कामलोक में प्रस्तारित होता चला गया। . .
· · ‘सहसा ही अपने को एक कल्प कानन के नील सरोवर के तटान्त पर उपस्थित देखा । महाभद्रा पीछे छूटे कल्पवृक्षों की बहुरंगी ज्योतिर्-छायाओं में ओझल होती दीखी। · · 'कि हटात् एक निलांगिनी नीलिमा ने मुझे आचूड़ आश्लेषित कर लिया। तच्चिन्मयो नीलिमा' की मंत्रध्वनि से समस्त चेतना ऊर्जस्वल हो उठी। • 'महायोगिनी सर्वतो भद्रा का यह आश्लेष मेरी और विश्व की समग्र विविधरूपिणी सत्ता को, एक महीनातिमहीन सुनील प्रभा के अथाह में केलि-तरंगित करने लगा । एक देश-कालोत्तीर्ण नील ज्योतिरबिन्दु में सारे लोकालोक एक बारगी ही अपसारित और प्रस्तारित होते दिखाई पड़े। उस बिन्दुवासिनी चिन्मणि बाला का सौन्दर्य रूपातीत, शब्दातीत होते
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