________________
१२०
उलटे पैरों गोबर ग्राम लौट कर, तूने अपने माता-पिता से अपना जन्म-वृत्तान्त किसी तरह निकलवा लिया।
' 'ओ वेशिका, वेश्या, तु मेरी मां है ! मैं तेरे साथ रमण करने आया था · · ·!' उसी आवेग में भाग कर तू फिर चम्पा नगरी पहुंचा । अपनी वेश्यामां के चरणों में लोट कर तूने अपना आत्म-निवेदन कर दिया। . . .
· · 'प्रत्यक्ष अभी इस क्षण अनुभव कर रहा हूँ, बिछड़े माँ-बेटे का वह गाढ़ आलिंगन और मर्मवेधी रुदन। कुट्टिनी को विपुल द्रव्य दे कर तू अपनी माँ को छुड़ा लाया। और उसे धर्म-मार्ग में स्थापित कर, कुछ दिनों बाद, एक रात अचानक माँ से कहे बिना ही तू निकल पड़ा। तेरा चित्त संसार की भूमि से ही उच्चाटित हो चुका था। तापसी प्रव्रज्या ले कर तू आत्म-प्राप्ति की खोज में व्याकुल, उन्मन् भटकने लगा।
· · देख रहा हूँ आज, ग्रीष्म की इस लू भरी दोपहरी में, तू कूर्मग्राम आया है। वट-वृक्ष के मूलों-सी जटाएँ धारण किये, आकाश में हाथ पसारे, ठीक सूर्य के सन्मुख अपलक दृष्टि स्थिर किये, आतापना ले रहा है । अबुझ है तेरी आत्मा की यातना । निर्धम अग्नि-सा जाज्वल्यमान तू, अपनी ही अन्तर-वह्नि में निरन्तर अपनी आहुति दे रहा है। अति विनम्र-विनीत है तेरा भाव । तेरा रोम-रोम दया-दाक्षिण्य से आप्लावित है। समत्व के योगासन पर आरूढ़ होने के लिये विकल तू, अपनी अवचेतना में बद्धमूल जनम-जनम व्यापी मोहनी कर्म के नागचूड़ों से दारुण युद्ध कर रहा है । तेरे दयार्द्र चित्त की करुणा का पार नहीं । सूर्य-किरणों के ताप से उद्विग्न हो, तेरी जटाओं से जो जूएँ नीचे खिर रही हैं, उन्हें तू फिर से उठा-उठा कर अपनी जटाओं में लौटा रहा है, कि वे सूक्ष्म जीव आश्रय-च्युत न हों। इस क्रूर संसार के प्रमत्त पदाघात तले वे कुचल न जायें । · · 'हाय, ये बेचारे नन्हें जीवाणु, कहाँ जायेंगे? · · 'मेरी जटाओं से बिछड़ कर ये कहाँ आसरा पायेंगे ?'
तेरी अन्तर-आत्मा की होमाग्नि से मेरा गहरा सरोकार है, वैशायन ! क्योंकि वह चिरकाल के सन्तप्त संसार की पुंजीभूत दुःख-ज्वाला है। कुटिल चक्रपथ से चल कर एक दिन वह मेरे ही द्वारा नियोजित राह से, मेरे कैवल्य शरीर पर आक्रमण करेगी। उस चुनौती का उत्तर दे कर, तीर्थंकर महावीर को अपनी अर्हत्ता प्रमाणित करना होगा । मेरे अभिन्न आत्म-सहचर वैशायन, हमारे प्रथम मिलन की यह घड़ी अनिवार्य और निर्णायक है।
· · 'तेरे समक्ष उपस्थित हूँ, मित्र वैशायन ! एक बार भी आँख उठा कर मेरी ओर नहीं देखेगा, बन्धु ? अपनी जूओं से अधिक, क्या संसार में तुझे कुछ भी प्रिय नहीं ? क्या मैं तेरे मैल की अण्डज इन जंओं से भी गया-बीता हूँ? मनुष्य के कपट-कूट और क्रूरता से तू ऐसा नाराज हो गया है, मित्र ? तेरी
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org