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आत्मा की करुणा ने मेरी वीतरागता को द्रवित कर दिया है। एक बार इधर देख, देवानुप्रिय ! · · 'विचित्र है तेरी यह आत्म-दहन की समाधि, जिसमें से करुणा के अश्रुजल झर रहे हैं।
- - वैशायन की अग्नि-समाधि को भंग किये बिना गोशालक को चैन नहीं। उसके ठीक सामने खड़ा हो वह उद्दण्ड स्वर में पूछने लगा :
'अरे तो तापस, क्या तू तत्वज्ञानी है ? या तू कोई पुरातन शैया-कामी है ? धन्य है तेरा तप, बलिहारी है तेरे तत्वज्ञान की। · · 'जूंएँ बीनने में कौन-सा तत्वज्ञान है, ओ मूढ़ मति ? अपने ही मैल की दया पालने में कौन-सा धर्म है, हे परम मूर्ख ?'
वैशायन बहुत देर तक गोशाले की बकवास को अविचल तितिक्षा से सहता रहा। प्रतिकारहीन मौन से वह उसकी अवगणना करता रहा । तापस को निरुत्तर पा कर गोशाला झुंझला गया। वह मेरे पास आ कर कहने लगा :
'भन्ते, तापस के वेश में यह कोई पिशाच है क्या ? औंधा लटक कर अपनी ही देह का छूटा मैल चाटने में यह मगन है । और अपने को कोई महातपस्वी समझ रहा है। उत्तर तक नहीं देता यह पाखण्डी । और ऐसा घमंडी , कि देवार्य की ओर आँख उठा कर तक नहीं देखता। इस पिशाच की लीला से नरलोक को बचाओ, भगवन् !'
तापस के धैर्य का सुमेरु विस्फोटित हो उठा :
'नरलोक · · ? ओ नरपिशाचों की सन्तान, महा नरपिशाच, ले जान कि मैं कौन हूँ . . .!'
__ और वैशायन का नाभि-कमल हठात् फट पड़ा। एक विकराल सत्यानाशी ज्वाला की लपट, उसमें से तीर की तरह छूट कर गोशालक के कपाल पर जा टकराई। गोशालाक भीषण दावाग्नि की असह्य लपटों में घिरा आक्रन्द करता हुआ ताण्डव करने लगा । मानो मानवता का जंगल अपनी ही आग में जल रहा है।
' . . 'ओ वैशायन, अपनी तेजो-लेश्या का आघात किया है तूने, मनुष्य की सारी जाति पर ! तेरा कोई दोष नहीं, वत्स, अपराधी मैं हूँ । मैं मनुष्य का प्रथम और अन्तिम बेटा। शान्त हो मित्र, शान्त हो। अपने भाई को नहीं पहचानेगा रे . . ?'
· · ·और हठात् मेरे हृदय के श्रीवत्स चिह्न में से सहस्रों जलधाराएँ फूट कर, गोशालक का दाह शमन करती हुई, वैशायन का आचूड़ अभिषेक करने लगीं।
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