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________________ १०० पड़ता है, कोई पिणाच है !' उन्होंने विपुल अन्न से भरा-पूरा थाल ही उसे अर्पित कर दिया । वह सारा अन्न वह खा न सका । आकण्ठ खा कर वह उदर के आफरे से आक्रन्द करने लगा । पानी का चूंट तक उतारना अशक्य हो गया। लोग बोले : ___ 'अरे तू अपनी आहार करने की क्षमता भी नहीं जानता रे? भोजन पराया हो, पेट तो पराया नहीं ! जान पड़ता है, मूर्तिमन्त दुष्काल है !' ___'अरे लोगो, मेरा तो पेट भी पराया है। जान पड़ता है, मेरा अपना तो कुछ है ही नहीं । इन नीच पेट तक ने धोखा दे दिया । अब तक यह साथ दे रहा था, आज इस पापी ने भी साथ छोड़ दिया !' बड़बड़ाता हुआ और पेट पर हाथ फेरता वह मेरी ओर आया। 'भन्ते, पेट तक अपना नहीं रहा । क्या करूँ ? आप तो कुछ बोलते नहीं।' 'पेट में समा जा और देख, तू पेट है कि और कोई ?' 'सच ही मैं पेट नहीं, भगवन्, कोई और हूँ । पर पता नहीं चलता, कौन हूँ। यह पेट बड़ा शत्रु है मेरा । आड़े आता है. और मुझे अपना पता नहीं लगने देता। . . 'भन्ते, आप कहें तो फाड़ फेंक इस पेट को ?' 'पेट को अपने में समा ले । फिर तू ही रह जायेगा, वत्स ।' .. और वह चुपचाप मेरे समकक्ष ही ध्यानस्थ हो गया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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