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________________ और चीत्कार कर, वे अपनी कतिका उठाये मेरी नाभि में भोंकने को बढ़े। · · कि तभी हवा में एक बिजली कड़की । उसमें से वज्रास्त्र निकल कर उन दो मानुषों के मस्तक पर तड़का। 'नहीं इन्द्र, ये इस योग्य नहीं । अज्ञानी पर प्रहार कैसा !' चोरों के मस्तक पर फैली मेरी उत्तान बाँहों पर गिर कर, शकेन्द्र का वह वज्रास्त्र व्यर्थ हो गया । 'क्षमा करें अर्हत्, पहचानने में भूल हो गई।' 'ठीक हुई । घर लौट आये तुम, आयुष्यमान् ।' 'प्रतिबोध दें, भगवन् ।' 'अपने ही को लुटा दो। सारे जगत की सम्पदा, बिना लूटे ही तुम्हारे पैरों में आ पड़ेगी।' 'आँखें खुल गईं, भन्ते !' 'देखो अपने ही भीतर । सारे ख़ज़ाने वहीं गड़े हैं, अन्यत्र कहीं नहीं।' लंगूर की तरह उछल कर गोशाला बीच में टपक पड़ा और किलकारियाँ करने लगा । मैं आगे बढ़ चला हूँ। भद्दिला में वर्षायोग सम्पन्न किया है । गोशालक आसपास के ग्रामों में भिक्षाटन कर काल यापन करता रहा। चंपक-गन्धा नदी के एक निर्जन द्वीप में उत्कृष्ट कायोत्सर्ग हुआ । नदी की लहरीली बाँहों में आलिंग-सुख अनन्त हो गया । अचानक ही घनघोर वर्षा आरम्भ हो गई । नदी में दुर्दाम बाढ़ आई है। ग्राम-जनों ने बाढ़ में द्वीप को डूब जाते देखा। तट पर से अनेक कारुणिक पुकारें सुनायीं पड़ीं। हाय, श्रमण डूब गये। नदी ने बत्तीस लक्षणे 'पुरुष का भोग ले लिया । । । · · · · कदली-समागम नामक ग्राम के आँगन में आ पहुँचा हूँ। 'प्रभु, यहाँ लोग याचकों को मुंह माँगा भोजन-दान कर रहे हैं। आइये भन्ते, रसवती का आनन्द लूट ।' मैंने उत्तर नहीं दिया। 'भयानक हैं, आप, भन्ते । आपको भूख ही नहीं लगती क्या?' 'तू है मेरी भूख, वत्स ।' 'समझ नहीं पड़ता, भगवन् । आप तो चुप हैं । यह अर्थहीन उत्तर कौन देता है ? · . 'तो मैं अकेला ही भोजन पाऊँ, भन्ते ?' · · · गोशाले ने दानियों के द्वार पर जा कर भर पेट भोजन किया । फिर भी वह अतृप्त ही रहा । हाथ फैलाता ही चला गया । ग्रामजन बोले : 'जान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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